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( ३१ ) मिलता है । क्योंकि जीव बारहवें भेद में मरण प्राप्त करता है इसलिए बारहवें से ग्यारहवें में किस प्रकार आवे ? यह वात प्रामाणिक नहीं जान पड़ती क्योंकि उस समय वह जीव देवता नारकी के भव में अपर्याप्ता होता है। इसलिए ग्यारहवां भेद, मानना युक्ति संगत लगता है। कोई इस प्रकार भी कहते हैं कि 'जहां ग्यारहवां भेद नहीं वहां बारहवां भेद भी नहीं। देवता नारकी में जीव के तीन भेद कहे गये हैं परन्तु दो भेद ही मानने चाहिए:-१. संज्ञी से आये, २. असंज्ञी से आये। परन्तु यह बात सिद्धांत के विपरीत लगती हैं । ऐसा करने से तो जीव के दो ही भेद हो जाते हैं, तीसरा भेद तो फिर निरर्थक ही प्रतीत होगा परन्तु सूत्र का पाठ तो इस प्रकार कथन करता है कि..'असन्नी उववन्नगा, सन्नी उववन्नगा' इत्यादि पाठ को ध्यान में रखते हुए एकांत स्थापन करने पर सूत्र के पाठ का उत्थापन होता है। इतना ही नहीं श्री भगवती सूत्र के पहिले शतक के प्रथम उद्देश्य में भी कहा है कि- 'नारकी देवता में असंज्ञो होवे तो जघन्य १, २, ३ यावत् उत्कृष्टा असंख्याता होवे ऐसा कहा है । तथा भगवती सूत्र के छठे शतक के चौथे उद्देश्य में कहा है कि- असंज्ञी नारकी देवता में कालादेश के छः भांगे प्राप्त होते हैं' तथा श्री पनवणा सूत्र के तीसवें पद में कहा है कि- 'असंज्ञी नारकी देवता में अणाहारीक के छः मांगे कहे हैं' इत्यादि अनक