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( ३० ) जीव का दसवां भेद 'चौन्द्रिय का पर्याप्ता' । १. गति २. जाति ३. काया एवं ४. दंडक ये सब चौन्द्रिय अपर्याप्ता के समान जाने । ५. प्राण-आठ ६. पर्याप्ति पांच ७. आयुष्य-जघन्य अन्तर्मुहुर्त का उत्कृष्ट छः मास का ८. अवगाहना-जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग उत्कट चार कोस की ९. आगत-दो मनुष्य व तिर्गव १०. गत दो - मनुप्य व तिर्गच ११. गुण स्थान-एक प्रथम ।। ____जीव का ग्यारहवां भेद 'असंज्ञीपंचेन्द्रिय का अपर्याप्ता' १. गति–चारों पावे २. जाति-पंचेन्द्रिय ३. काया-स ४. दंडक-चउदह, १नारकी+१०भवनपति+१तिर्यंच पंचेन्द्रिय+१वाणम्यंतर+१मनुष्य । यहां असंज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय तो प्रसिद्ध है, लेकिन असंज्ञी मनुष्य की भी चउदह स्थान की उत्पत्ति है एवं देवता और नारकीय तो नहीं परन्तु असंज्ञी तिर्गच पंचेन्द्रिय मरकर देवता में एवं नारकी में उत्पन्न होता है, उन्हें अंतमुहुर्त सीधे अपर्याप्ति समय विभंग ज्ञान उत्पन्न नहीं होवे तब तक असंही की अपेक्षा जाननी चाहिए। . श्री जीवाभिगम सूत्र की दूसरी प्रतिपति में कहा है कि.. 'नेरड्याणं भंते कि सन्नी ? असन्नी ? गोयमा सन्निवि, असन्निवि' तथा कितने ही कहते हैं कि देवता और नारकी असंज्ञी है, उसमें ग्यारहवां भेद नहीं मिलता, परंतु बारहवां भेद