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( ३४ ) में मन उथापने के लिए और संज्ञी में स्थापन के लिए छः पर्याप्ति कही । परन्तु दोनों का नाम साथ लिखने से पांच पर्याप्ति कही है। श्री पन्नवणा सूत्र के अट्ठाइसवें पद में तथा भगवती सूत्र के छठे शतक में चौथे उद्देश्य एवं भगवती सूत्र के अठारहवें शतक के पहिले उद्देश्य में व निरयावलिका सूत्र रायप्पसेणी आदि मुख्य सूत्रों में पांच पर्याप्ति कही है। इस कारण से अपर्याप्ता संज्ञी में चार पर्याप्ति कही है।
७. आयुष्य-जघन्य उत्कृष्ट अंतमु हुर्त का ८. अवगाहनाअंगुल का असंख्यातवां भाग ९. आगत-चार १०. गतदो-मनुष्य व तियञ्च ११.गुणस्थान-तीन । देवता, नारकी एवं युगलिया, ये लन्धि अपर्याप्ता नहीं होते । यह नियम है । इसलिये ये तीनों करण अपर्याप्ता होते हैं । इस अपेक्षा से अपर्याप्ता में १, २, ४ ये तीन गुण स्थान मिलते हैं।
जीव का चउदहवां भेद-'संज्ञी पंचेन्द्रिय का पर्याप्ता' १. गति-चार २. जाति-पंचेन्द्रिय ३. काया-त्रस ४. दंडक-सोलह ५. प्राण-दुस ६. पर्याप्ति - छः ७. आयुष्य-जघन्य अंतमु हुते का, उत्कृष्टा तेतीस सागर का ८. अवगाहना-जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टा एक हजार योजन का,उत्तर वैक्रिय करेतो उत्कृष्टा लाख योजन की ९. आगत-चार १०. गत-पांव ११. गुणस्थान-चउदह ।
इस प्रकार से गति चार, जाति पांच, काया छः, दंडक चौवीस आदि अनेक स्थानों पर ग्यारह द्वार की