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का बन्धन करता है परन्तु अधिकता की अपेक्षा से वह बन्धन शुभ अथवा अशुभ अर्थात् पाप पुण्य कहा जाता है जिस कारण से पुण्य पाप ऊपर पथ्य अपथ्य का दृष्टांत स्पष्ट ह ।
अव आश्रव तत्त्व का स्वरूप कहते हैं | आश्रव तत्त्व के दो भेद - (१) द्रव्य आश्रम एवं (२) भाव आश्रव । यहां द्रव्य आश्रव पर तीन दृष्टांत बतलाते हैं - (१) जिस प्रकार कुम्हार चाक के द्वारा घड़े का निर्माण करता है उसी प्रकार जीव मिथ्यात्व आदि कर्म रूप आश्रव से कर्म करता है ।
(२) जिस प्रकार पुरुष चिमटे की सहायता से कांटा पकड़ता है उसी प्रकार जीव कर्म रूप आश्रव करके कर्म ग्रहण करता है ।
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(३) जिस प्रकार स्त्री पली ( चम्मच ) के द्वारा घृत ग्रहण करती है उसी प्रकार जीव कर्त रूप आश्रव करके कर्मों को ग्रहण करता है । इस प्रकार कहते कोई प्राणी जीव को भी आश्रव रूप श्रद्धे तो उसे समझाने के लिये दूसरा दृष्टांत कहा जाता है ।
(१) जिस प्रकार कुम्हार (कर्त्ता) ने चाक से बड़े का निर्माण किया, उसी प्रकार जीव ने आश्रव करके कर्म ग्रहण किये। यहां कुम्हार जीव है तथा चाक और घड़ा दोनों ही अजीव है उसी प्रकार कर्त्ता तो जीव है तथा