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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
'पुराण - वेद' और 'इतिहास - वेद' का भी उल्लेख है ।" पं० बलदेव उपाध्याय के मतानुसार इस समय तक 'इतिहास' तथा 'पुराण' में भिन्नता हो चुकी थी । शतपथ-ब्राह्मण, बृहदारण्यक उपनिषद् एवं छान्दोग्य उपनिषद् तथा आश्वालयनगृह्यसूत्र के अध्ययन से यह स्पष्टतः विदित होता है कि इनके काल में पुराणों की प्रतिष्ठा पौराणिक वाङमय के रूप में नहीं हो पायी थी ।
वैदिक ग्रन्थों में 'पुराण' शब्द का प्रयोग मात्र आख्यानार्थ हुआ है । चूंकि पुराण-प्रणेता वैदिक आख्यानों के प्रति श्रद्धावान् थे, अतएव प्राथमिक पुराण-संरचना का सूत्रपात्र भी इन आख्यानों के समावेश के साथ हुआ था । वेदों तथा पारम्परिक पुराणों में ऐसे आख्यान भी मिल जाते हैं, जिनके विवरण में या तो समरूपता है या जिनका पहले के आधार पर दूसरे के अनुवर्ती विकास का साक्ष्य उपलब्ध होता है । " डॉ० एस० एन० राय के मतानुसार वेदों में जो आख्यान के प्रकरण उपलब्ध हैं, वे बौद्धिक रूप से समाज के निम्न वर्ग के लिए थे, किन्तु पौराणिक आख्यान का विकास युग के अनुरूप हुआ था । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि पारम्परिक पुराणों का विकास आख्यान, इतिहास, कल्प, गाथा, उपाख्यान से हुआ है । इन्हीं का विकसित रूप पारम्परिक पुराण हैं ।
जैनाचार्यों के कथनानुसार जैन 'पुराण' का उद्भव तीर्थंकर ऋषभदेव से हुआ है । महापुराण में वर्णित है कि उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी एवं तृतीय काल में ऋषभदेव ने जिस इतिवृत्त का वर्णन किया, वृषभसेन गणधर ने उसे ही पुराण रूप प्रदान किया । वही पुराण अजितनाथ आदि तीर्थंकरों, गणधरों तथा बड़े-बड़े ऋषियों द्वारा प्रकाशित किया गया ।" चतुर्थ काल में अन्तिम तीर्थंकर महावीर से महाराज श्रेणिक ने राजगृह में उक्त पुराण के विषय में जिज्ञासा प्रकट की, तब गणधर
स्वामी ने उन्हें सुनाया । गौतम गणधर से सुधर्माचार्य, सुधर्माचार्य से जम्बूस्वामी और
१. गोपथ ब्राह्मण 919190
२. बलदेव उपाध्याय- पुराण-विमर्श, वाराणसी, १६६५, पृ० ११
३. एस० एन० राय - पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहाबाद, १६७३, पृ० २८ - २६ ४. एस० एन० राय - हिस्टॉरिकल एण्ड कल्चरल स्टडीज़ इन द पुराणाञ्च,
इलाहाबाद, १६७८, पृ० ५
महा १1१६१-१६५
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