Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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राक्षसवंश की उत्पत्ति | 8 वानरों का उत्पीड़न सभी ने छोड़ दिया और राक्षसाधिपति - तडित्केश ने विनयपूर्वक पूछा
-आपके विषय में मुझे उत्सुकता हो रही है, कृपया अपना परिचय दीजिए।
वानर ने अपना असली स्वरूप प्रगट किया और पूर्व-परिचय वता दिया।
समीप ही कायोत्सर्गपूर्वक कोई मुनि विराजमान हैं, यह सुनकर तडित्केश को बहुत प्रसन्नता हुई। वह तुरन्त ही मुनि चरणों में पहुंचा और वन्दन करके एक ओर श्रद्धावनत बैठ गया। मुनि ने वात्सल्य भरा हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया तो राजा ने पूछा--- _..--गुरुदेव ! इस वानर के साथ मेरे वैर का क्या कारण है ?
मुनिश्री ने बताया-राजन् ! इसका और तुम्हारा पिछले जन्मों का सम्बन्ध है । सुनो
श्रावस्ती नगरी में तुम राजमन्त्री के पुत्र थे और नाम तुम्हारा था दत्त । यह वानर काशी नगर में लुब्धक (वहेलिया) था। तुमने श्रामणी दीक्षा ले ली और आत्म-कल्याणार्थ तत्पर हुए ।
एक बार लुब्धक जीविकार्थ नगर से बाहर वन की ओर जा रहा
विश्रवा मुनि' भी पिता पुलस्त्य की भांति वेदाभ्यासी थे। भारद्वाज मुनि ने अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया । उनका पुत्र हुआ वैश्रवण (कुबेर) । ब्रह्माजी से वैश्रवण ने अपनी तपस्या द्वारा कुवेर का पद, लंका का राज्य और पुष्पक विमान प्राप्त कर किया ।
विष्णु के भय से माली बहुत समय तक रसातल में निवास करता रहा । इस समय लंका का सिंहासन रिक्त था अतः ब्रह्माजी ने उस पर वैश्रवण को विठा दिया।
इससे पहले लंका राक्षसों के अधिकार में थी। [उत्तरकाण्ड]