Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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६२ | जैन कथामाला (राम-कथा) ___-हाँ लंकापति, विलकुल यही । इस यज्ञ के प्रताप से स्वर्ग-मोक्ष की ही प्राप्ति होती है। . लंकेश ने व्यंग्यपूर्वक कहा
-बड़ा सरल साधन है मुक्ति का ! लाइए मैं आप लोगों को उठा-उठाकर इस यज्ञाग्नि में फेंके देता हूँ। आप लोग स्वर्ग के सुख भोगिये और मैं मुक्त हो जाऊँगा !
उपस्थित सभी व्यक्तियों के मुख पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। साहस करके पुरोहित ने ही कहा
-'नहीं महावली, ऐसा नहीं। पशु ही यज्ञ में हवन किये जाने चाहिए-ऐसा शास्त्र का आदेश है।
-शास्त्र या शस्त्र ? किस शास्त्र का आदेश है कि निरीह प्राणियों को आग में भून डालो। सच्चा शास्त्र तो अर्हत प्रणीत है, जिसमें जीव दया ही प्रमुख धर्म है। मूर्यो ! यज्ञ का सही अर्थ समझो--यह शरीर वेदी, आत्मा यजमान, तप अग्नि, ज्ञान व्रत और हवन सामग्री कर्म है । इसी से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। निरपराध प्राणियों के प्राणनाश से तो घोर पाप का वन्ध होगा और नरक में वास करना पड़ेगा।
सभी मौन होकर रावण की बात सुन रहे थे किन्तु उस हिंसक यज्ञ से निवृत नहीं हुए । पशुओं को बन्धनमुक्त नहीं किया।
कुपित रावण ने कहा
-~-राजा मरुत ! या तो इस यज्ञ को अभी भंग कर दो अन्यथा लंकापुरी का कारागार तुम सब लोगों की प्रतीक्षा में खुला हुआ है और मृत्यु के उपरान्त नरक के द्वार ! .
रावण के भय से मरुतराजा ने यज्ञ भंग कर दिया । पुरोहित