Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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'पांच सौ श्रमणों की बलि | २५५ ' राजा को मौन और विचारमग्न देखकर पालक ने कहा
-उद्यान खुदवा लिया जाय, महाराज ! यदि मेरी बात मिथ्या प्रमाणित हो तो मैं प्राणदण्ड पाने के लिए प्रस्तुत हूँ।
अस्थिर चित्त से राजा ने उद्यान खुदवाने की आज्ञा देते हुए कहा- -मेरे समक्ष ही उद्यान की खुदाई होगी। . प्रफुल्लित पालक ने कहा" -मेरे अहोभाग्य ! महाराज स्वयं अपनी आँखों से देखकर सत्य का निर्णय करेंगे।
राजा दण्डक की उपस्थिति में उद्यान की भूमि खुदवाई गई तो वहाँ शस्त्रों का भण्डार निकल आया। चेहरा लटक गया नगर-नरेश का । उसे स्वप्न में भी आशा नहीं थी कि यह अनहोनी घटित हो जायगी। उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया । अस्त्र-शस्त्र उसे भयंकर विषधरों के समान दिखाई देने लगे। पीड़ित होकर स्तम्भित रह गया दण्डक-मानो हजारों विच्छूओं ने एक साथ डंक मार दिया हो। पालक के मुख पर व्यंगपूर्ण मुस्कान खेल' गई। उसने पूछा
-अब क्या आज्ञा है, महाराज ? सेवक का सिर प्रस्तुत है। ___ -और लज्जित न करो, मन्त्री !
-क्या व्यवहार होना चाहिए इन ढोंगियों के साथ ? .. -मुझसे कुछ मत पूछो । जो तुम्हारी इच्छा हो, करो।
राजा ने पालक से कहा और खेद-खिन्न होकर अपने महल में जा । छिपा । उसका चित्त बहुत दुःखी था। ऐसी अनहोनी उसके नेत्रों ने. देखी जो पहले कभी नहीं हुई थी। .. श्रमण और शस्त्र त्रिकाल में भी असम्भव है यह साथ ! किन्तु