Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३४२ जैन कथामाला (राम-कथा)
रावण के शान्त स्वर को सुनकर विभीषण उत्साहित होकर उसे समझाने लगा
-तात ! इस युद्ध से न तो सुकृत मिलेगा, न लाभ ! सीता को लौटाकर अपने दुष्कृत्य पर पश्चात्ताप करना ही उचित है ।
-विभीषण, सीता को नहीं लौटाऊँगा, यह मैं तुमसे पहले भी कह चुका हूँ।
-चाहे उसके कारण राक्षस जाति का नाश ही हो जाय ? कुछ तो विवेक से काम लो, राक्षसपति !
-क्यों हो जायेगा राक्षस जाति का विनाश ! मेरे सुभट रामलक्ष्मण का ही प्राणान्त कर देंगे।
-राम और लक्ष्मण की तो बात ही क्या ? उनके एक दूत का पराभव भी आप न कर सके। उसने अक्षकुमार को मारा, आपका मुकुट भंग किया और कमलनाल के समान नागपाश को तोड डाला। सम्पूर्ण लंका को हिलाकर बेदाग बच निकला। क्या बिगाड़ लिया आपने रामदूत का जो राम को मारने का दम्भ कर रहे हैं। -विभीषण के शब्द कठोर थे। ___इन्द्रजित का युवा रक्त इन शब्दों को न सह सका। सत्य कडवा होता ही है और अभिमानी सत्य वचनों को सुनकर भड़क जाते ही हैं । रावण का अभिमानी पुत्र इन्द्रजित बोल उठा
-काकाजी ! आप तो जन्म के कायर हैं ही। स्वयं तो कर्तव्यपालन करते नहीं और दूसरों को भी रोकते हैं । दशरथ वध न करके भी अपने पिताजी को विश्वास दिला दिया और उन्हें धोखे में रखा। विश्वासघाती हैं आप ! राक्षसकुल का नाश कराने के लिए राम से मिले हुए हैं।
विभीपण ने उत्तर दिया