Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
लक्ष्मण पर शक्ति-प्रहार | ३६३
वाण वर्षा करने लगे। रावण ने वहुत प्रतीकार किया किन्तु उसका रथ-सारथी आदि पलक झपकते ही भंग हो गये। दूसरे रथ पर राक्षसराज वैठा तो उस रथ की भी यही दशा हुई। एक के बाद एक पाँच वार राम ने रावण को विरथ किया।
रावण ने समझ लिया कि 'राम इस जगत में अद्वितीय पराक्रम वाले हैं । इनसे युद्ध करना लोहे के चने चवाना है।'
राम की कोपाग्नि के सम्मुख रावण का टिकना असम्भव-सा हो गया। उसने हृदय में विचार किया-'इस प्रकार राम को युद्ध में पराजित करना तो असम्भव है । इनका अपने अनुज पर अत्यधिक स्नेह है और लक्ष्मण मर ही जायगा । उसके शोक में राम भी स्वयमेव प्राण त्याग देगा फिर लड़ने से क्या लाभ ?'
यह विचार करके रावण रथ में बैठकर लंका में प्रवेश कर गया।
सामने अपकारी शत्रु न होने से कोप का स्थान शोक ने ले लिया। वे लक्ष्मण के पास आकर करुण-क्रन्दन करने लगे
-अरे भैया ! तू बोलता क्यों नहीं ! तेरे मधुर वचनों को सुने विना मैं कैसे वैर्य रखू ? माता सुमित्रा को क्या उत्तर दूंगा ? संसार यही कहेगा कि राम ने स्त्री के लिए छोटे भाई की भेंट चढ़ा दी । हाय ! मैं ऐसा निर्वल हूँ कि तुम्हारी रक्षा भी न कर सका । अब ' मेरा ही जीवित रहकर क्या होगा ? मैं भी तुम्हारे साथ ही मृत्यु का
आलिंगन करता हूँ। , . . इस प्रकार उनके करुण विलाप को सुनकर सभी विह्वल हो गये। सभी शोक-मग्न थे।
स्वामी के शोक में यदि सेवक का विवेक भी जाग्रत न रहे तो. काम ही विगड़ जाय । सुग्रीव ने निवेदन किया__-स्वामी ! यह अवसर शोक का नहीं, वरन् लक्ष्मण की मूर्छा दूर करने का है।