Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रावण वध | ३८७ उत्तर दिया रावण के विकट अट्टहास ने।।
ज्यों-ज्यों लक्ष्मण उसके विभिन्न रूपों पर वाण बरसाते त्यों-त्यों रावणों की संख्या बढ़ती जाती । युद्ध-भूमि में चारों ओर रावण ही रावण दिखाई देने लगे। उन सबके सम्मिलित अट्टहासों से दिशाएँ काँप उठीं। वानर और राक्षस दोनों ओर के वीर रावण की इस माया को संभ्रमित से देखते रह गये । - संभ्रमित न हुए तो एक लक्ष्मण । वे अकेले ही अनेक रावणों से युद्ध कर रहे थे, पूर्ण पराक्रम से । न उनके तन पर स्वेद था न मन में खेद।
उनकी विकट मार से रावण घवड़ा गया। उसने विद्या का संकोचन कर लिया । बहुरूपिणी विद्या भी लक्ष्मण के पराक्रम के समक्ष सफल न हुई। . अर्द्ध चक्री के चिह्न के रूप में रावण ने दिव्य चक्ररत्न का स्मरण किया । शत-शत प्रकाश रश्मियाँ विखराता हुआ चक्क उसके हाथ में आ गया । चक्क को घुमाते हुए उसने कहा
- लक्ष्मण ! अव भी समय है, प्राण वचाकर युद्ध-क्षेत्र से. वापिस चला जा अन्यथा यह चक्र तेरा कण्ठच्छेद ही कर देगा। : लक्ष्मण ने मुस्कराते हुए कहा
--रावण ! तेरा मार्ग अधर्म का है । तेरी सभी विद्याएँ निष्फल । हो चुकी हैं । यह चक्र ही तेरा काल वनेगा। परस्त्री-प्रसंग के दोष से तेरी मृत्यु अवश्यम्भावी है। . .
कुपित होकर रावण ने चक्र लक्ष्मण पर फेंक दिया। दिव्य चक्र अपनी आभा फैलाता हुआ लक्ष्मण के पास आया और उनकी प्रदक्षिणा देकर दाएँ हाथ की ओर आकर ठहर गया । चक्र की आभा से लक्ष्मण की शरीर-कान्ति अनेक गुनी बढ़ गई।