Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 544
________________ ४८८ | जैन कयामाला (राम-कथा) तव राम ने लवण के पुत्र अनंगदेव को अयोध्या का सिंहासन दिया और स्वयं प्रबजित होने को तत्पर हो गये । वे अर्हद्दास श्रावक के द्वारा वताये गये महामुनि सुव्रत के चरणों में जा पहुँचे । मुनि माना गया है। उसका मूल विन्दु वाल्मीकि रामायण में इस प्रकार मिलता है राज्याभिषेक के पश्चात जव श्रीराम वानरों और राक्षसों को विदा करने लगे तो हनुमान ने विनती की प्रभु ! मापके प्रति मेरा प्रेम निश्चल रहे और आप में ही सदा भक्ति बनी रहे। जब तक पृथ्वी पर रामकया रहे तब तक मेरे प्राण इसी शरीर में बने रहें जिससे मैं आपका चरितामृत पान करता रहूं। श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाकर कहा कपिप्रेष्ठ ऐसा ही होगा। जब तक मेरी कथा रहेगी तब तक तुम्हारा सुयश भी रहेगा और इसी शरीर में तुम्हारे प्राण भी ! और मेरी कथा जव तक यह लोक रहेंगे तव तक रहेगी। एवमेतत्कपिश्रेष्ठ ! भाविता नात्र संशयः । चरिष्यति कथा यावदेशा लोकश्च मामिका ।। तावत्ते भविता कीर्तिः शरीरेभ्यसवस्तथा । लोका हि यावत्स्थास्यन्ति यावत्स्थास्यन्ति में कथाः ।। [वाल्मीकि रामायण : उत्तरकाण्ड ४०२१-२२॥ (श्रीराम के इस आशीर्वचन के फलस्वरूप ही सम्भवतः वाद के राम कथाकारों ने हनुमान को अमर और जानत देव मान लिया है। -सम्पादक वाल्मीकि रामायण के अनुसार ही तुलसीकृत रामायण में भी [लवकुश काण्ड, दोहा ६०-६४] वर्णन है।

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