Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विभीषण का राज्यतिलक | ३९७ केवली भगवान ने बताया
इस भरतक्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में तुम दोनों प्रथम और पश्चिम नाम के दो निर्धन भाई थे। एक बार भवदत्त मुनि से धर्मश्रवण कर दोनों भाइयों ने व्रत ग्रहण कर लिए और श्रीसंघ के साथ विचरण करने लगे।
बिहार करते-करते दोनों मुनि पुनः कौशाम्बी नगरी में आये । उस समय सम्पूर्ण नगर वसन्तोत्सव मना रहा था। राजा नन्दिघोप भी अपनी रानी इन्दुमुखी के साथ वसन्त क्रीड़ा में तल्लीन था। उसे देखकर पश्चिम मुनि ने निदान किया कि 'इस तपस्या के फलस्वरूप मैं इन्हीं राजा-रानी का पुत्र होकर ऐसे ही सुख भोगूं।' साथी साधुओं ने इस निदान का प्रायश्चित्त करने का वहुत आग्रह किया किन्तु पश्चिम मुनि नहीं माने और मरकर रानी इन्दुमुखी के गर्भ से रतिवर्द्धन नाम के पुत्र हुए । यौवन वय प्राप्त करके रतिवर्द्धन भोगोपभोगों में लीन हो गया। प्रथम मुनि ने भी कालधर्म प्राप्त किया और पांचवें देवलोक में महद्धिक देव वने। अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव जानकर उनका भ्रातृप्रेम उमड़ आया । रतिवर्द्धन को प्रतिबोध देने हेतु वह मुनि का वेश बनाकर कौशाम्बी जा पहुंचा। उसने रतिवर्द्धन को उसका पूर्वभव सुनाया तो उसको भी जातिस्मरण ज्ञान हो गया। संसार को त्याग कर उसने जिन दीक्षा ली और कालधर्म प्राप्त करके ब्रह्मलोक में देव हुआ। वहाँ से च्यवकर , दोनों देव महाविदेह क्षेत्र में विवुद्ध नगर के राजा हुए और प्रवजित होकर कालधर्म प्राप्त किया। दोनों भाई पुनः अच्युत देवलोक में देव हुए। वहाँ से अपना आयुष्य पूर्ण कर तुम दोनों प्रतिवासुदेव रावण के पुत्र इन्द्रजित और मेघवाहन हुए हो। रतिवर्द्धन के जन्म की माता इन्दुमुखी ही तुम दोनों की माता मन्दोदरी बनी है। ___इस वृतान्त को सुनकर मन्दोदरी, इन्द्रजित, मेघवाहन, कुम्भकर्ण आदि ने तत्काल व्रत ग्रहण कर लिए।
पर
मुखी ही तुम दोनों न हुए हो। रतिववासुदेव रावण