Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४६२ / जैन कयामाला (राम-कया) चमकता हआ ज्वालाओं के बीच में से नीचे की ओर गिर रहा है। गर्त में पहुंच गयी सीता को काया । लोग हतप्रभ से रह गये।। ___चमत्कार सा हुआ दूसरे ही क्षण ! अन्ति ज्वालाएँ नीरव जल में परिणत हो गई । स्वर्ण कमल के सिंहासन पर बैठी सती सीता धीरेधीरे जल से ऊपर आई मानो स्वयं प्रभाकर के रूप में ही संसार का भ्रम रूपी अन्धकार नष्ट करने के लिए उदित हुआ हो उस समय सती का दिव्य तेज।
गर्त वापी (वावड़ी) के रूप में बदल गया । जल की सतह ऊपर उठने लगी । ऊँची, और ऊँची उठती ही चली गई। वापी में मानो आवर्त आ गया । जल वावड़ी से बाहर निकल कर चारों ओर फैलने लगा, फैलता ही गया। जल-प्लावन का-सा दृश्य दिखाई देने लगा। जल की लहरों के तीन आघात से मंच काँप गये।
विद्याधर तो भयभीत होकर आकाश में उड़ गये किन्तु भूमिचर मनुष्य कहाँ जायें । वे पुकार करने लगे-महासती हमारी रक्षा करो। रक्षा करो। त्राहिमाम्, त्राहिमाम् की आवाजें आने लगीं।
विश्वमंगलकारिणी सती सीता ने अपने हाथ से जल को दवा दिया । जल का जोश सती के शान्त कर-स्पर्श से ठण्डा पड़ गया। फैला हुआ पानी पुनः लौटा और वापी में ही समा गया। लोगों ने शान्ति की सांस ली।
भूमि और आकाश में सीताजी के शील की महिमा गाई जाने लगी। सुग्रीव, भामण्डल, लक्ष्मण आदि ने भक्तिपूर्वक सती को प्रणाम किया। श्रीराम ने लज्जा और पश्चात्तापपूर्वक हाथ फैलाकर कहा
-मुझे तो तुम्हारे चरित्र पर पहले ही विश्वास था। यह सब तो लोकापवाद को शान्त करने के लिए था । अव तुम सबको क्षमा करके पुष्पक विमान में बैठो और घर चलो।