Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४६६ | जैन कथामाला (राम-कथा) उसने अपने मित्रों को यह गुप्त समाचार बता दिया । वसुदत्त ने कुपित होकर रात्रि के समय जाकर श्रीकान्त को मार डाला । जीवित वसुदत्त भी न बच सका। श्रीकान्त की तलवार से उसका भी वहीं प्राणान्त हो गया। वे दोनों मरकर विन्ध्याटवी में मृग हुए । गुणवती भी कुंवारी ही मर गई और उसी वन में मृगी बनी। मृगी के कारण वे दोनों मृग लड़ पड़े और मर गये । इस प्रकार अनेक जन्मों तक वसुदत्त और श्रीकान्त के जीव गुणवती के कारण ही लड़ते-मरते रहे। उनका वैर भव-भव में बढ़ता ही रहा, कम नहीं हुआ।
इधर धनदत्त अपने भाई की मृत्यु से दु:खी होकर इधर-उधर भटकने लगा। एक रात्रि को क्षुधातुर दशा में एक मुनि को देखा और उनसे भोजन माँगा । मुनि ने उसे समझाया
-भद्र ! हम साधु लोग दिन में भी भोजन का संग्रह नहीं करते तो रात्रि में तो प्रश्न ही नहीं उठता.। और फिर रात्रि में भोजन करना ही नहीं चाहिए। अन्धकार में न जाने कैसा विपैला जीव पेट में चला जाय ? उसकी हिंसा तो हो ही जायगी और अपने भी प्राण निकल जायेंगे। यदि प्राण न भी निकले तो घोर कायाकष्ट भोगना ही पड़ेगा।
मुनि के इन वचनों से धनदत्त को सन्तोष हुआ। वह श्रावकधर्म का पालन करके मरा और सौधर्म देवलोक में देव वना। वहाँ से च्यवन करके धारिणी और मेरु सेठ का पुत्र पद्मरुचि हुआ । वह परम श्रावक था। एक बार अपने घोड़े पर बैठकर गोकुल' को जा रहा था कि मार्ग में एक वृद्ध वैल अन्तिम साँसें गिनता हुआ दिखाई दिया। वह तुरन्त घोड़े से उतरा और परभव के लिए संवल रूप महामन्त्र नवकार सुनाने लगा। महामन्त्र के प्रभाव से वैल के
१ बहुत-सी गायों को वाँधने, रहने और चरने का स्थान ।