Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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वासुदेव को मृत्यु । ४७६ लोगों को निराधार छोड़ गये। अब आपके अनुज किसको अग्रज कहेंगे?
लक्ष्मण के कानों में ये शब्द पिघले हुए शीशे के समान पड़े। 'बड़े भाई राम मर गये और मैं जीवित हूँ।' इन शब्दों के साथ ही उनके भी, प्राण तो निकल गये और निर्जीव देह सिंहासन के स्वर्ण स्तम्भ से टिक गया। वे लेप्यमयी प्रतिमा के समान निष्क्रिय और स्थिर हो गये।
सहज ही हुई लक्ष्मण की मृत्यु से दोनों देवता बहुत दु:खी हुए। 'हमने यह क्या दुष्कृत्य किया ? एक महापराक्रमी पुरुष को मार डाला।' यह सोचकर उन्हें घोर पश्चात्ताप हुआ और अपनी आत्मनिन्दा करते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। उनके साथ ही उनकी माया भी लुप्त हो गई।
अहो, कर्म का विपाक दुरतिक्रम है। देवताओं का तो केवल निमित्त था । वासुदेव लक्ष्मण की मृत्यु इसी प्रकार होनी थी।
आर्तध्यान के कारण लक्ष्मण का जीव चौथी भूमि में उत्पन्न हुआ अव उनकी निर्जीव देह सिंहासन पर पड़ी थी।
अब प्रारम्भ हुआ असली रुदन । लक्ष्मण के अन्तःपुर में हाहाकार मच गया । रानियों के केश खुल गये।
आक्रन्दन को सुनकर राम दौड़े आये और बोले
-अरे यह अमंगल कैसा ? मैं जीवित हूँ और छोटा भाई लक्ष्मण जीवित है फिर यह रोना-धोना क्यों ?
लक्ष्मण की ओर देखकर बोले
-इसे कोई रोग हो गया है । अभी वैद्यों को बुलाकर चिकित्सा. कराता हूँ।
वैद्य बुलाये गये और ज्योतिषी भी। तान्त्रिक-मान्त्रिक सभी ने