Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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राजा वज्रजंध से मिलन | ४३६ सीता के मुख से स्फुट रूप से पंच नमस्कार मंत्र सुनाई पड़ते ही राजा ने पुनः कहा
-तुम मेरी धर्म वहिन हो और मैं तुम्हारा बन्धु । क्योंकि हम और तुम दोनों ही साधर्मी हैं-एक ही धर्म को मानने वाले । वहिन ! पति-गृह के अलावा स्त्री का एक और भी घर होता है-वह है भाई का घर । तुम मेरे घर चलो। मैं तुम्हारा भाई ही हूँ।
इस प्रकार का आश्वासन पाकर सीता चलने को तत्पर हुई। शिविका मँगाकर वज्रजंघ ने आदर सहित उसे बिठाया और पूछा
-बहिन ! अपना परिचय तो वता दो । भाई से क्या छिपाव ?
सीता ने रोते-रोते सारी अपबीती सुना दी। किसी के भी हार्दिक भावों को, गूढ़ रहस्यों को जानने की कला सहानुभूतिपूर्ण मीठे शब्द ही हैं । सीता की अपवीती सुनकर वज्रजंघ ने आश्वासन दिया
-श्रीराम ने तुम्हारा त्याग लोकापवाद के कारण ही किया है। वे तुम्हें भूल नहीं सकेंगे। उन्हें वड़ा पश्चात्ताप हो रहा होगा। जल्दी ही तुम्हें ढूंढ़ने निकलेंगे।
सीता वज्रजंघ के साथ पुण्डरीकपुर पहुंच गई। वहाँ उसे वैसा ही स्वागत-सत्कार मिला मानो भाई भामण्डल का ही घर हो । सीता वहाँ आश्वस्त होकर रहने लगी । उसका अधिकांश समय धर्म ध्यान ' में ही व्यतीत हो जाता।
सीता को वन में छोड़कर सेनापति कृतान्तवदन वापिस अयोध्या पहुँचा । राम के सम्मुख जाकर कहने लगा
१ सीताजी को ऋपि वाल्मीकि अपने आश्रम में ले गये । 1 [तुलसीकृत : लवकुश काण्ड, दोहा १७, वाल्मीकि रामायण, उत्तरकाण्ड]