Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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४३० | जैन कथामाला (राम-कया) पड़ रहा था रावण के पैरों की बनावट को याद करने के लिए। घृणास्पद और दुःखदायी प्रसंग को मानव भूल ही जाता है । जैसे-तैसे चित्र वना । सीता उसे ध्यान से देखने लगी कि कहीं कोई त्रुटि तो नहीं रह गई है।
जानकी तो चित्र बनाने में व्यस्त थी और सपत्नियाँ मन-ही-मन प्रार्थना कर रही थीं कि 'ऐसे में पतिदेव आ जायें ।' कपटी-कुचालियों के मनोरथ भी फलते हैं। उनकी मनोकामना पूरी हुई। श्रीराम आ ही तो गये। देखा-सीता चित्र की ओर ध्यानपूर्वक अपलक देख रही है। सपत्नियाँ बिना आहट किये तुरन्त उठी और पति के कान में फुसफुसाकर कहा
-देख लीजिए नाथ ! सीता अब भी रावण के चरणों की पूजा करती है।
राम की मुख-मुद्रा गम्भीर हो गई। वे उलटे पैरों वापिस लौट गये। राम क्या लौटे सीता का भाग्य ही पलट गया।
सपत्नियों ने देखा राम का सीता के प्रति प्रेम इतना प्रगाढ़ है कि उनके मुख पर क्रोध की एक रेखा भी नहीं आई। काम तो वना पर बाधा । सपत्नियों ने अपनी दासियों द्वारा सीता के प्रति नगर में अपवाद प्रसारित कराना प्रारम्भ कर दिया ।
वसन्त सतु का आगमन हो गया था । राम सीता से बोले
-~~-प्रिये ! तुम गर्भ के भार से युक्त हो । चलो उद्यान-क्रीड़ा करें तुम्हारा मन भी बहल जायगा और वसन्तोत्सव भी मना लेंगे।
-स्वामी ! मेरा दोहद तो देवाचंन का है। -सीता ने उत्तर
-~~नली उद्यान में तुम्हारा यह दोहद भी पूर्ण हो जायगा। सानगीना को माय नकर महेन्द्रोदय उद्यान में गये। वहां उन्होंने
बोहर पूर्ण कराया और उद्यान कीना भी की।