Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३७० | जैन कथामाला (राम-कथा) ___लोगों ने उसके सिर पर पाँव रखकर चलना प्रारम्भ कर दिया। पाड़ा विवशतापूर्वक सब कुछ सहता रहा । विवश प्राणी को और भी तंग करना कुछ लोगों की आदत-सी होती है। इस मानवकृत उपद्रव से मरकर पाड़ा श्वेतंकर' नगर का राजा पवनपुत्रक वायुकुमार देव बना।
अवधिज्ञान से उसे अपनी कष्टप्रद मृत्यु का ज्ञान हुआ। उसे. उन लोगों पर वड़ा क्रोध आया जिन्होंने उसे अकारण ही पीड़ा पहुँचाई थी। कुपित होकर उसने अयोध्या नगर में विभिन्न प्रकार की महामारियां फैला दीं। सम्पूर्ण नगर रोगग्रस्त हो गया किन्तु एक व्यक्ति ऐसा भी था जिस पर इन महामारियों का कोई प्रभाव न हुआ। उसका नाम था राजा द्रोणमेघ ! न तो वह स्वयं ही वीमार पड़ा और न उसके परिवार का ही कोई व्यक्ति । द्रोणमेघ मेरा (भरत का) मामा था किन्तु उस समय अयोध्या में ही रहता था।
जव उससे इसका कारण पूछा गया तो उसने बताया-मेरी रानी प्रियंकरा पहले एक भयंकर रोग से पीड़ित थी। अनेक इलाज कराये पर कोई लाभ न हुआ। वैद्य, तांत्रिक, मांत्रिक, सभी अपने-अपने प्रयास करके निराश हो गये । मैं भी बहुत दु:खी था और रानी भी। इसी दशा में एक बार उसने गर्भ धारण कर लिया। गर्भ के प्रभाव से उसकी व्याधि शान्त हो गई। अनुक्रम से गर्भकाल पूरा होने पर उसने एक पुत्री को जन्म दिया। उसका नाम हम लोगों ने विशल्या रखा । एक बार हमारे देश में भी महामारियों का प्रकोप हुआ तो विशल्या के स्नानजल से सव को सब शान्त हो गई। कुछ समय पश्चात सौभाग्य से मुझे सत्यभूति नाम के चारण मुनि के दर्शन हो गये। विशल्या के सम्बन्ध में पूछने पर मुनिदेव ने बताया-यह
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यह नगर भुवनपति देवों का मालूम पड़ता है।
(देखिये त्रिषष्टि शलाका ७१७ गुजराती अनुवाद पृष्ठ १३३),