Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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पाताल लंका की विजय | २८५ -भद्र ! तुम चुपचाप एक ओर बैठकर मेरा रण-कौशल ही देखो। मैं अकेला ही इन सबके लिए काफी हूँ।
-इस खर ने मेरे पिता से पाताल लंका का राज्य छीन लिया .
था.......
-चिन्ता मत करो। पाताल लंका का राज्य तुम्हें ही मिलेगा। यह मेरा वचन है। . . __ युद्धभूमि में वातों के लिए अवकाश नहीं होता। इसलिए लक्ष्मण ने वात समाप्त कर दी।
त्रिशिरा की मृत्यु से कुपित होकर खर लक्ष्मण के सम्मुख आया और कहने लगा____-अरे पापी ! मेरे निरपराध पुत्र शम्बूक के प्राणहन्ता ! ऐसा घोर अपराध करके भी तूं इस दीन विराध की सहायता से स्वयं को रक्षित समझता है ? ___-शम्बूक की मृत्यु का तो मुझे भी पश्चात्ताप है लेकिन विद्याधर मैं किसी अन्य की नहीं अपनी ही शक्ति पर विश्वास रखता हूँ। ___-देखता हूँ कितना विश्वास है तुझे अपनी शक्ति पर । अभी यमपुरी पहुंचाये देता हूँ। यह कहकर खर लक्ष्मण पर तीक्ष्ण प्रहार करने लगा। लक्ष्मण और खर के बीच घोर युद्ध प्रारम्भ हो गया । तभी आकाशवाणी हुई-.
विराध ने विनीत स्वर में कहा-मैं तुम्बरु नाम का गन्धर्व हूँ। रम्भा अप्सरा में आसक्त होने के कारण कुवेर ने मुझे शाप दे दिया था । उसी शाप के कारण मैं राक्षस हो गया। अब आपके प्रताप से मेरी राक्षस योनि से मुक्ति हो गई ।
यह कहकर विराध राक्षस ने देह-त्याग कर दिया । [अरण्यकाण्ड] इस प्रकार यह घटना सीताहरण से पूर्व की है। सम्पारक