Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रावण का मुकुट-भंग | ३३३ - कर दिया । सुभटों में ऐसा कोई नहीं बचा था जिसके शरीर से रक्त न बह रहा हो । सभी भयभीत थे।
अन्तिम शस्त्र के रूप में इन्द्रजित ने नागपाश छोड़ा। नागपाश ने हनुमान को आपाद-मस्तक जकड़ लिया। राक्षसों के मुख प्रसन्नता से खिल उठे।
यद्यपि हनुमान नागपाश को कमलनाल के समान तोड़ सकते थे। उनके अतुलित बल के समक्ष उसकी गणना एक कच्चे धागे से से अधिक न थी। किन्तु राक्षसों के खिले चेहरों को देखकर उन्होंने सोचा-'कुछ देर तक इन्हें भी प्रसन्न हो लेने दो। अपना क्या जाता है और फिर इस बहाने रावण से भी भेंट हो जायगी। सम्भवतः उसे सवुद्धि आ जाय और विनाश न हो ।' अहो ! परोपकार के लिए महापराक्रमी हनुमान ने शक्ति होते हुए भी अपना पराभव स्वीकार कर लिया ऐसी होती है, सदाशयी पुरुषों की वृत्ति ।
इन्द्रजित ने वन्धनग्नस्त हनुमान को लंका की राज्यसभा में ला खड़ा किया और पिता से कहा- ...
-लंकापति ! उत्पाती वानर हाजिर है। ..... पिता की दृष्टि पुत्र से मिली-दोनों की आँखों में दर्प जाग उठा। रावण ने सम्पूर्ण सभासदों पर नजर डालो-मानो कह रहा था देखा - मेरे पुत्र का कमाल । इन्द्रजित का मुख दर्प से दमदमा रहा था।
. हनुमान की उपेक्षापूर्ण दृष्टि सम्पूर्ण सभासदों पर घूमती हुई . रावण पर जा टिकी। दोनों आँखों में आँखें डाले एक-दूसरे को घूर
रहे थे। सभासद आश्चर्य में थे कि हनुमान वजांय अभिवादन करने . के लंकेश को पूरे जा रहे थे। न उनके पलक झपक रहे थे और न
सिर नीचा हो रहा था । सभा में पूर्ण निस्तब्धता छाई हुई थी। सभी .. दम साधे आगत की प्रतीक्षा कर रहे थे। :