Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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३३० | जैन कयामाला (राम-कथा)
-हे वीर तुम कौन हो? यह दुर्लध्य समुद्र कैसे पार किया ? .
--मैं पवनंजय और अंजना का पुत्र हनुमान हूँ। आकाश-गामिनी विद्या के सम्मुख यह विशाल समुद्र नदी की क्षीण रेखा के समान है। स्वामी की कृपा से सरलता से पार हो गया ?
-कहाँ रहते हैं प्राणनाथ, अनुज लक्ष्मण के साथ ? कैसे हैं वे ? हनुमान ने बताया
-प्रभु राम अनुज सहित किष्किवापुरी में रहते हैं । हे देवि ! आपके विरह में रात-दिन तड़पते हैं और लक्ष्मण तो गाय से विछुड़े बछड़े (गो वत्स) के समान निरन्तर दिशाओं को देखते रहते हैं। एक क्षण शोक में तो दूसरे ही पल क्रोध में तपने लगते हैं । सम्पूर्ण वानरों का स्वामी सग्रीव, पाताल लंकापति विराध, विद्याधरपति भामण्डल, महेन्द्र, गन्धर्वराज आदि उनकी सेवा करते हैं; परन्तु उनक मुख पर भीण मुस्कराहट भी नहीं आती.। उनके हृदय में तो एक मात्र तुम्हारा ही ध्यान रहता है।
सीता आँख वन्द करके हनुमान के शव्द सून रही थी। ये शब्द नहीं थे, अमृत की बूंदें थीं। पति का अविचल प्रेम जानकर सती का . हृदय हर्ष-विभोर हो गया। अनायास ही मुख से निकल पड़ा
-वन्य भाग्य हैं मेरे, जो मुझे पति का ऐसा अनुपम प्रेम मिला। हनुमानजी ने उनकी हीन दुर्वल काया देखकर समझ लिया कि देवि ने भोजन आदि का त्याग कर रखा है। उन्होंने चहुत आग्रह किया तो पति-वियोग के २१वें दिन सीता ने भोजन किया।
सीताजी ने अपना स्मृति चिह्न देकर कहा
-वीर ! प्रमाणस्वरूप मेरा चूडामणि ले जाओ। प्रभू राम से इतना ही कह देना कि दर्शन देकर शीघ्र ही मेरे संताप को मिटावें। - हनुमान ने आदरपूर्वक चूडामणि लिया और अपलक उसे देखने लगे।