Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सूर्यहास खड्ग | २६७. : शोक का वेग कम हुआ तो विवेक जागा। सोचने लगी-'आखिर इस निर्जन वन में मेरे पुत्र का हत्यारा कौन आ गया ? कोई देव, विद्याधर या मानव ? हाँ यदि मानव होगा तो पैरों के निशान अवश्य होंगे।' चन्द्रनखाने सूक्ष्म दृष्टि से देखा तो एक मानव से पगचिह्न उसे स्पष्ट दिखाई दे गये। पुत्र की हत्या का बदला लेने हेतु उन्हीं पग-चिह्नों का अनुसरण करती हुई चलने लगी। . . दूर से ही देखा तो दो अतिसुन्दर पुरुष बैठे थे। चन्द्रनखा पुत्र शोक भूलकर काम विह्वल हो गई। उसने नाग कन्या का-सा सुन्दर रूप बनाया और काँपती हुई दोनों भाइयों के समक्ष पहुंची। , राम ने देखा एक सुन्दरी भय से व्याकुल उनके समक्ष आ खड़ी हुई है तो उन्होंने पूछा
-भद्रे ! आप कौन हैं और इस भयानक अटवी में कैसे आ
फंसी?
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।
चन्द्रनखा कपट का सहारा लेकर बोली
-मैं अवन्ती की राजकुमारी हूँ । रात्रि को महल की छत पर सो 'रही थी कि कोई विद्याधर मुझे उठा लाया । इस वन के ऊपर आकाश मार्ग में कोई दूसरा विद्याधर जा रहा था। मुझे रोती चिल्लाती देखकर नये विद्याधर ने कहा-'अरे दुष्ट तू इस सुन्दरी को कहाँ-ले जा रहा है ? इसे छोड़ दे।' पहला विद्याधर मुझे छोड़ना नहीं चाहता था और दूसरा मेरी रक्षा को सन्नद्ध। उन दोनों में युद्ध की नौबत आ गई। मुझे उस विद्याधर ने इस वन में छोड़ा और दोनों लड़ने लगे। युद्ध करते-करते दोनों विद्यावर मर गये और मैं अकेली रह गई।
क्या करूं, कहाँ जाऊँ, कैसे इस वैन से निकलूं यही सोचती हुई भटक रही थी कि अचानक आप लोग दिखाई दे गये। अब आप मेरे स्वामी वनकर मेरी रक्षा कीजिए।,