Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सीताहरण | २७५
पुष्पक विमान में बैठकर दण्डकवन जाने को तत्पर हुआ । सौन्दर्य की प्यास उसे मौत के मुँह में धकेल रही थी ।
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विद्याधर खर अपने चौदह हजार सैनिकों को साथ लेकर दण्डकवन में आया । दूर से ही विद्याधर समूह को देखकर दोनों भाई समझ गये कि उस सुन्दरी द्वारा प्रेरित यह विद्याधर दल युद्ध के लिए कटिवद्ध होकर आया है । राम उठने लगे तो लक्ष्मण ने विनम्रतापूर्वक कहा
-आर्य ! मेरे होते हुए आप कष्ट क्यों कर रहे हैं ? श्रीराम अनुज के पराक्रम और वीरता से आश्वस्त थे । वोले- लक्ष्मण ! तुम प्रसन्नता से जाओ । मुझे तुम्हारी विजय का पूर्ण विश्वास है, फिर भी यदि कोई संकट आ पड़े तो मुझे बुलाने के लिए सिंहनाद कर देना, तुरन्त आ जाऊँगा ।
'जो आज्ञा' कहकर लक्ष्मण चल दिये । राम और सीता वहीं वैठे रह गये ।
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रावण पुष्पक विमान में आरूढ़ वहीं पहुँचा जहाँ राम सीता बैठे थे । राम के तेजस्वी स्वरूप को देखकर रावण भयभीत होकर कुछ दूर पीछे लौट आया । उसने समझ लिया कि राम की उपस्थिति में सीता का हरण तो क्या उसकी ओर देखना भी मृत्यु को निमन्त्रण देना है ।
रावण धर्म-संकट में पड़ गया । खाली हाथ वापिस लौटता है तो लंका की राजसभा उसे कायर समझेगी । अपनी वहन की दृष्टि में उसका पराक्रम ही क्या रह जायगा ? और बलधारी राम से सीता को छीनकर ले जाना - यह कल्पना ही व्यर्थ है । उसने विद्याबल का सहारा लिया । स्मरण करते ही अवलोकनी विद्या प्रकट हुई | रावण ने कहा