Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२६६ / जैन कथामाला (राम-कथा)
शम्वूक की माता चन्द्रनखा अवधि समाप्त होने की प्रतीक्षा अधीरता से कर रही थी। उसने विचार किया कि-'आज साधना की अवधि समाप्त हो गई। वारह वर्ष सात दिन दिन पूरे हुए । मेरे पुत्र को खड्ग की प्राप्ति हो चुकी होगी। मैं दिव्य खड्ग की पूजा हेतु सामग्री तथा पुत्र के लिए अन्नपान आदि लेकर जाऊँ।'
सम्पूर्ण सामग्री लेकर चन्द्रनखा सुदित-मन पुत्र के पास आई। पुत्र की दशा देखकर माँ का हृदय चीत्कार कर उठा । पुत्र मिला किन्तु मृत--शिर धूल में पड़ा हुआ और धड़ वृक्ष से लटका हुआ।
चन्द्रनखा के हाथ से सामग्री छूट गई। वह 'हा पुत्र ! हा पुत्र' कहकर छाती पीट कर रुदन करने लगी। किन्तु कौन था उस वेन में जो उसकी पुकार सुनता, उसे धीरज बंधाता? आखिर रो-धो कर स्वयं ही चुप हो गई।
राम पुष्पक विमान में बैठकर उत्तर, पूर्व, पश्चिम तीनों दिशाओं में देखते हुए दक्षिण की ओर चले तो वहाँ शैवाल पर्वत के उत्तर की ओर एक सरोवर के किनारे नीचे की ओर मुंह किये एक तपस्वी को देखा । राम ने उससे पूछा-तुम कौन हो ? किस जाति के हो ? और यह कठोर तपस्या क्यों कर रहे हो ? -
तपस्वी ने उत्तर दिया-मैं स्वर्ग प्राप्ति के लिए तपस्या कर रहा हूँ, नाम मेरा शम्बूक है और मैं जाति से शूद्र"!
शूद्र शब्द सुनते ही राम ने तलवार से उसका सिर काट दिया। उसी समय वाह्मण-पुत्र जीवित हो उठा और अग्नि आदि देवताओं ने राम पर पुप्प वृष्टि की। वाल्मीकि रामायण : उत्तरकाण्ड]
तुलसी कृत में शूद्र तपस्वी का नाम नहीं दिया है। घटना यही है और राम ने वाण से उसका शिरच्छेद किया ।
[तुलसीकृत रामचरितमानस, लवकुश काण्ड, दोहा ८]