Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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इन्द्र का पराभव | १०५ - केवली से अपने पूर्वभव का पापकर्म सुनकर इन्द्र को वैराग्य हो आया। उसने अपने पुत्र दत्तवीर्य को राज्य भार सौंपा और स्वयं प्रवजित हो गया। .
मुनि पर्याय धारण करके इन्द्र ने घोर तपश्चरण किया और . मुक्ति पाई।
एक वार रावण केवली अनन्तवीर्य की वन्दना करने गया । मुनिश्री को स्वर्णतुंग गिरि पर केवलज्ञान हुआ था और उनका समवसरण भी वहीं रचा गया।
केवली भगवान अनन्तवीर्य ने परम कल्याणकारी देशना दी। रावण ने भी वह कर्णप्रिय देशना सुनी और आनन्द विभोर हो गया। .
मानव का स्वभाव है कि वह भविष्य के प्रति सदैव सशंकित रहता है । 'कल क्या होगा' यह जानने की इच्छा-उसे सदैव लगी रहती है। रावण भी इस भावना का अपवाद नहीं था। देशना समाप्त होने के पश्चात् अंजलि बाँधकर उसने जिज्ञासा प्रकट की
-प्रभो ! मेरा मरण किसके हाथों होगा?
-दशमुख ! तुम प्रतिवासुदेव हो और तुम्हारी मृत्यु वासुदेव के हाथों होगी।
-भगवन् ! मृत्यु का कारण ? -परस्त्री दोप।
भगवान के इस संक्षिप्त से उत्तर को रावण ने हृदय की गहराइयों में उतार लिया । उसने तत्काल अभिग्रह लिया
-'जो परस्त्री मुझे न चाहेगी उसका मैं कभी भोग नहीं करूंगा।'