Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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११२ | जैन कथामाला (राम-कया) ही रहे । मैं आपको कैसे भूल जाती ! मेरी कामना है आपका मार्ग सुखकारी हो।
अहो, अंजना का कैसा दुर्भाग्य ! पति ने उसकी ओर देखा तक नहीं, घृणा से मुख फेर कर चले गये।
पति द्वारा सार्वजनिक अवहेलना सती न सह सकी। वह अपने भवन में आकर कटे वृक्ष के समान गिर पड़ी।
__पवनंजय वहाँ से चलकर मानसरोवर पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए सेना ने पड़ाव डाल दिया। सेंना विश्राम में निमग्न थी और रात्रि की नीरवता एक चकवी के आक्रन्दन से भंग हो रही थी। कुमार पवनंजय की विचारधारा एकदम पलटी-जव यह चकवी दिन भर पति के साथ रमते हुए मात्र रात्रि-वियोग के कारण ऐसा घोर विलाप कर रही है तो इतने वर्ष के लगातार वियोग ने अंजना की क्या दशा कर दी होगी?
अधीर होकर पवनंजय ने मित्र प्रहसित्त को अपना विचार वताया। प्रहसित सन्तुष्ट हुआ ! दोनों मित्र तत्काल वहाँ से चले और अंजना के भवन के वाहर जा पहुंचे।
उस समय सखी वसन्ततिलका अंजना को धैर्य वधा रही थीसखी ! धीरज रख । कुमार को अवश्य तुझ पर दया आयेगी। ___-कैसे धीरज रखू, सखी ! इतने वर्ष हो गये । आज सारी लोक लज्जा छोड़कर उनके समक्ष गई तो भी वे मेरी उपेक्षा कर गये। एक दिन लज्जावश मिश्रका को नहीं रोका तो भी मेरा भाग्य फूट गया और आज लज्जा छोड़ी तो भी उनका अनुराग न मिला। अव तो यह पापी प्राण निकल जायें तभी इस विरह से पीछा छूटे। -अंजना ने दुःखी स्वर में कहा।