Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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. सती अंजना ११३
उसी समय भवन के द्वार पर प्रहसित दिखाई दिया। अंजना परपुरुप को देखकर कुपित हो गई। उसने कड़ककर पूछा-कौन ?
-प्रहसित !
यहाँ आने का साहस कैसे हुआ ? .. -मैं गैर नहीं, आपका हितैपी ही हूँ।
-पति ही जिसका हितैषी नहीं है, पर-पुरुप क्यों होगा ? तुरन्त निकल जाओ यहाँ से अन्यथा मैं यहीं से कूद कर प्राण त्याग दूंगी।
-यह प्राण त्यागने का समय नहीं, प्राणपति से मिलने का है। मेरे पीछे देखिए कौन खड़ा है ?
अंजना ने देखा तो सामने कुमार पवनंजय प्रेम विह्वल खड़े थे। सती विस्मित सी रह गई। उसे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था । लड़खड़ा कर गिरने लगी तो कुमार ने आगे बढ़कर सम्भाल लिया। पति का स्पर्श पाकर सती को आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। चिर वियोग आँसुओं के रूप में बहा जा रहा था। - कुमार ने अंजना से क्षमा माँगते हुए कहा
-देवी ! मेरा अपराध अक्षम्य है फिर भी मुझे क्षमा करो। अंजना का गला रुंध गया था। वड़ी कठिनाई से बोल सकी
-नाथ ! मैं तो जनम-जनम की. दासी हैं। मेरे पाप कर्मों का ही दोप है । आप क्षमा मांगकर मुझे और भी लज्जित न करें।
पवनंजय ने प्रिया के गालों पर वहते हुए आँसू पोंछ डाले।
पति-पत्नी को अनुरक्त जानकर प्रहसित और वसन्ततिलका पहले ही वाहर निकल गये थे।
एकान्त में पति-पत्नी का मिलन हआ। रात्रि के अन्तिम पहर में कुमार जाने लगे तो अंजना ने विनय की