Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
सीता-स्वयंवर | १८१ -तो प्रजा भी उन जैसे विवेकी और प्रजावत्सल राजा के शासन में सुखी हो होगी?
-सुखी कहाँ राजन्, दुःखी कहिए।
चौंक पड़े अयोध्यापति। बोले- क्या दुःख है प्रजा को? दूत साफ-साफ बताओ । -प्रजादुःखकातर दशरथ के शब्द काँप रहे थे।
दूत कहने लगा--
-महाराज ! मेरे स्वामी तो प्रजावत्सल हैं किन्तु आतरंगतम आदि अर्धवर्बर म्लेच्छ राजाओं का जाल शुक, मंकन, काम्बोज आदि देशों तक फैला हुआ है । वे बहुत ही शक्तिशाली और दुर्दमनीय हैं। हमारे राज्य में आकर उपद्रव करते हैं। हमने अपनी पूरी शक्ति झोंक दी किन्तु उनका कुछ नहीं विगाड़ सके । वे लोग प्रजा को लूटते, प्रताड़ित करते और धर्मस्थानों को नष्ट-भ्रष्ट कर जाते हैं। आप हमारे स्वामी के मित्र हैं। प्रजा और धर्म की रक्षा के लिए कुछ कीजिए । अपने महाराज की ओर से यही विनय करने आया हूँ।
प्रजावत्सल महाराज दशरथ की भृकुटी टेढ़ी हो गई। उन्होंने तुरन्त सेना तैयार करने का आदेश दिया और दूत को आश्वस्त करते हुए वोले
-दूत ! जनक हमारे परम मित्र हैं और मित्र से विनय नहीं की जाती। मित्र का मित्र पर अधिकार होता है। उनका संकट हमारा संकट है और धर्मद्रोहियों को दण्ड देना तो पुनीत कर्तव्य । तुम जाकर उन्हें आश्वस्त कर देना कि अब उन म्लेच्छों का समूल उन्मूलन ही हो जायगा। ___ राम सहित चारों भाई राजसभा में बैठे पिताश्री के वचनों को सुन रहे थे । आदरपूर्वक राम उठे और कहने लगे