Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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वनमाला का उद्धार | २२६ वनमाला आश्चर्यचकित हो उनकी ओर देखती ही रह गई। वह कुछ बोल ही न सकी । लक्ष्मण ने ही पुन: कहा
-आश्चर्यचकित मत हो, वनमाला ! अग्रज राम और सीता वृक्ष की दूसरी ओर निद्रामग्न हैं । मैं तुम्हारी आवाज ही सुनकर इधर आया हूँ। चलो, उनके पास चलें।
और लक्ष्मण के पीछे-पीछे वनमाला चल दी। दोनों राम-सीता के पास चुपचाप जाकर बैठ गये।
रात्रि के अन्तिम प्रहर में श्रीराम और सीता की निद्रा टूटी तो सामने एक लज्जाभिमुख नवयौवना को देखकर उत्सुकता जाग्नत हुई। लक्ष्मण ने अग्रज की उत्सुकता समझी और वनमाला का सम्पूर्ण वृत्तान्त सुना दिया । वनमाला ने सलज्ज राम और सीता को प्रणाम किया और एक ओर सीताजी के पार्श्व में बैठ गई।
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प्रातःकाल राजकुमारी वनमाला अपने शयनकक्ष में न मिली तो महल में पुकार मच गई । राजा महीधर स्वयं पुत्री की खोज में सेना सहित वन की ओर आ निकले । दूर से ही पुत्री को देखकर कुपित स्वर में सैनिकों से वोले
इन चारों को पकड़ लो। सैनिक शस्त्र ऊँचे करके दौड़ पड़े। लक्ष्मण भी उठे और प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष्टंकार किया। सैनिक स्तम्भित से खड़े रह गये। अकेला राजा महीधर ही उनके पास तक पहुँच सका । वनमाला ने पिता से कहा
-पिताजी ! ये महाराज दशरथ के वनवासी पुत्र हैं। महीधर का कोप शान्त हो गया । विनम्र स्वर में बोले
-सौमित्र ! धनुप पर से प्रत्यंचा उतार दो। मेरे और पुत्री के सौभाग्य से आप लोग यहीं आ गये ।