Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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दशरथ को वराग्य | १९७
पुत्र सहित तिलकसुन्दर नाम के आचार्य के पास जाकर दीक्षित हो गया। दोनों पिता पुत्र दीर्घकाल तक तपस्या करते रहे और कालधर्म प्राप्त करके महागुंक्र' देवलोक में देव वने । ___महामुनि सत्यभूति राजा दशरथ को सम्बोधित करके कहने लगे
-हे राजन् ! देवलोक से च्यवकर सूर्यजय का जीव तो तुम अयोध्यापति दशरथ हुए और रत्नमाली का जीव मिथिलापति जनक ! पुरोहित उपमन्यु का जीव आठवें देवलोक से च्यवकर मैं सत्यभूति । हुआ हूँ।
अपने पूर्वभव सुनकर राजा दशरथ की वैराग्य भावना और भी दृढ़ हो गई। उसी समय प्रव्रज्या लेने हेतु वे राम को राजतिलक करने के विचार से राजमहल में आये । उन्होंने अपना निर्णय सबको सुना दिया।
राजकुमार भरत ने नम्रतापूर्वक पिता से निवेदन किया
-तात ! आप अपने साथ मुझे भी प्रव्रजित होने की आज्ञा दीजिए।
-तुम्हारी अभी कुमारावस्था है, यहीं रहो।
-नहीं पिताश्री ! आपके चले जाने के बाद तो मुझे दो सन्ताप सतायेंगे-एक आपका वियोग और दूसरा संसार ताप । मैं नहीं सह सकूँगा । आप अपने साथ ही मुझे भी ले चलिए।
राजा दशरथ ने पुत्र को वहुत समझाया। संसार की ऊँच-नीच दिखाई किन्तु भरत अपने निर्णय पर अटल-अडिग रहे ।
पिता-पुत्र दोनों साथ ही , दीक्षित हो जायेंगे-अन्तःपुर में यह समाचार फैल गया।
-त्रिषष्टि शलाका ७४
१ सातवां देवलोक (स्वर्ग)