Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१९२ | जैन कथामाला (राम-कथा) सुयोग नहीं मिल रहा था । मुनिराज के आगमन से वह सुन्दर सुयोग भी मिल गया। अव हर्पित होकर राजा दशरथ परिवार और परिकर सहित श्रीसंघ की वन्दना को चल दिये।
यह विचार करके रानी चुपचाप उठी और सबकी नजर वचाकर भीतर के खण्ड (भवन-कमरा) में चली गयी। उसने अपने ही वस्त्र को फाँसी का फन्दा बना लिया तथा आत्महत्या को उद्यत हो गई।
उसी समय राजा दशरथ भी वहाँ आ गये । अन्य रानियों में पटरानी को न देखकर के चिन्तित हुए और उसकी खोज करने लगे। खोजते-खोजते भीतर खण्ड में पहुंचे तो रानी को इस दशा में पाया। तुरन्त ही राजा ने रानी के गले से फन्दा निकाला और स्नेहपूर्वक वगल में विठाकर मधुर स्वर में पूछा
-प्रिये ! ऐसा तीव्र क्रोध ? मेरे किस अपराध का दण्ड दे रही हो? .
____-नाथ ! अव मैं आपकी आँखों में खटकने लगी हूँ। मुझे मर । जाने दीजिए।
दशरथ अवाक् रह गये । पटरानी ने भयंकर आरोप लगाया था। तिलमिलाकर बोले
-ऐसा न कहो देवी ! मेरा अपराध तो वताओ।
-सभी को स्नात्रजल भेजकर आपने कृपा की और मैं मन्दभागिनी उपेक्षित ही रही। __ . -नहीं, नहीं, रानी ! तुम्हारे लिए स्नात्रजल तो अन्तःपुर का अधिकारी स्वयं लेकर सवसे पहले चला था । अन्य रानियों की दासियां तो उसके बहुत देर बाद चली थीं। फिर वह क्यों नहीं आया ?
तव तक वृद्धावस्था से जर्जरित शरीर को लिए हुए वृद्ध अधिकारी मा गया । राजा ने कर्कश स्वर में पूछा
-तुम्हें देर क्यों हुई ? इतने विलम्ब का कारण ? ..