Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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क्षमावीर सुकोशल | १४३ लगीं। उनका रुधिर पीकर उसे अजीब-से सुख की अनुभूति हुई। सुकोशल मुनि का आत्मा कुछ क्षणों में सम्पूर्ण कर्म क्षयकर सिद्ध शिला में जा विराजमान हुआ। ___अव वारी आई मुनि कीर्तिधर की । बाघिन के नख-प्रहारों से उनका शरीर भी क्षत-विक्षत हो गया। साथ ही आत्मा पर लगा हुआ कर्ममल भी बिखर गया । मुनिश्री की देह तो बाघिन के
सामने पड़ी थी और आत्मा मोक्ष' में पहुंच गई । वाधिन' उनके - रक्त-मांस का भक्षण करके सुख का अनुभव कर रही थी और मुनि
कीर्तिधर का आत्मा अतीन्द्रिय, निराबाघ और शाश्वत सुख में रमण करने लगा।
-त्रिष्टि शलाका ७४
यह बाघिन पूर्वभव में सुकोशल की माता सहदेवी का जीव थी। पति कीर्तिधर और पुत्र सुकोशल के प्रवजित हो जाने पर दुःखी होकर उसने वैर बाँध लिया था। उसी वैर का बदला उसने दोनों मुनियों का हनन करके लिया।
-सम्पादक