Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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राम-लक्ष्मण का जन्म | १६६ अपने चारों सुयोग्य पुत्रों-राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के साथ राजा दशरथ . सुखपूर्वक राज्य-संचालन करने लगे। पुत्रों
कामदेव को जीत लेने के कारण नारदजी को गर्व हो गया। उन्होंने विष्णुजी के सामने भी गर्वोक्ति की। तब उनका गर्व हरने के लिए विष्णुजी ने अपनी माया फैलाई।
- - विष्णु की माया ने एक सुन्दर सगरी की रचना की। वहां का राजा शीलनिधि था और स्वयं विष्णुमाया ने विश्वमोहिनी नाम से वहाँ शरीर धारण किया। एक बार नारदजी घूमते-घामते उस नगरी में जा पहुंचे तो आदरपूर्वक राजा ने अपनी कन्या दिखाकर उनसे उसके गुण-दोष जानने चाहे । विश्वमोहिनी का रूप देखकर नारद कामाभिभूत हो गये ।
वे तुरन्त अपने आराध्य विष्णुजी के पास पहुंचे और विश्वमोहिनी को व्याहने की इच्छा से सुन्दर रूप की याचना की । विष्णु ने यह कहकर कि 'जिसमें तुम्हारा भला होगा वही करेंगे' उनका रूप वानर का सा बना दिया।
नारदजी विश्वमोहिनी के स्वयंवर में अकड़ते हुए जा पहुंचे । स्वयं विष्णुजी भी एक राजा का रूप बनाकर वहाँ पहुंच गये । वहीं शिवजी के दो गण भी ब्राह्मणों का वेश बनाकर बैठे थे। विष्णु की इस माया को वे जानते थे । विश्वमोहिनी ने जव विष्णु के गले में वरमाला डाल दी और वे उसे साथ लेकर चल दिये तो नारद खेदखिन्न हो गये। तब उन ब्राह्मणों ने कहा-'मुनिवर ! अपना रूप तो दर्पण में देखिए । राजकुमारी आपके कण्ठ में माला कैसे डाल देगी ?'
नारद ने जल में अपना मुंह देखा तो वह वन्दर का सा था। शिवजी के गण उनका मजाक उड़ाने लगे । नारद को उन पर बहुत कोध आया और उन्हें राक्षस होने का शाप दिया। उन्हें विष्णु का व्यवहार भी बहुत बुरा लगा। अतः उन्होंने शाप दिया कि जिस तरह मैं आज