Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सीता जन्म : भामण्डल-हरण | १७७ जनक का पुत्र आस-पास होता तो मिलता वह तो वैताढयगिरि की दक्षिण श्रेणी के रथनूपुर नगर के विद्याधर राजा चन्द्रगति की रानी पुष्पवती के अंक में किलकारियाँ भर रहा था।
हुआ यह था कि पिंगल मुनि का जीव जो सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ था उसने अपने पूर्वभव के शत्रु कुलमण्डित के सम्बन्ध में अवधिज्ञान से विचार किया । शत्रु को राजा जनक के पुत्र रूप में उत्पन्न हआ जान वह क्रोधावेश में भर गया और नवजात शिशु को को माता की बगल से उठाकर उसे मारने के अभिप्राय से ले गया।
आकाश में चलते-चलते उसकी विचारधारा पलटी। सोचा'मैंने पूर्वजन्मों में पाप कर्म किये थे उनका फल तो चिरकाल तक भोगा। अब इस जीव हिंसा के फलस्वरूप मुझे और भी कष्ट उठाने पड़ेंगे । दैवयोग से मुनिव्रत धारण किये तव तो यह देव गति पाई और इसमें भी पाप कर्म उपार्जन करूं तो मुझ जैसा मूर्ख कौन होगा।'
उसके हृदय से वैर-भाव उड़ गया। शिशु को दिव्यवस्त्रालंकारों से विभूषित करके रथनूपुर के नन्दनोद्यान में हलके से छोड़ दिया। बालक के दिव्य वस्त्र अंधेरी रात में चमकने लगे।
मारीच उस कन्या को लेकर मिथिला देश के निकट एक वन में गाड़ आया।
दैवयोग से उसी दिन बहुत से लोग घर बनाने के लिए भूमि खोद रहे थे । वहाँ हल की नोंक से वह सन्दूक कुछ बाहर आई और दिखाई दे गई । लोगों ने वह सन्दुक राजा जनक को सौंप दी। सन्दुक में सुन्दर कन्या और पत्र देखकर जनक सब कुछ समझ गये ।।
उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से उस कन्या का नाम सीता रखा और अपनी रानी वसुधा को सौंपकर उसे पालने को कहा।
-उत्तर पुराण पर्व ६८, श्लोक ११-२७