Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१६२ | जैन कयामाला (राम-कथा)
वरमाला हाथ में लिए हुए राजकुमारी कैकेयी ने स्वयंवर मण्डप में प्रवेश किया और एक-एक करके सभी राजाओं का उल्लंघन कर गई । अन्त में उसने दशरथ के गले में वरमाला डाल दी।
सभी की दृष्टियाँ दशरथ की ओर उठ गईं। सभी राजा स्वयं . को कैकेयी का स्वामी मानते थे, उस जैसे स्त्री-रत्न की प्राप्ति के लिए लालायित थे। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। हरिवाहन ने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया-कैकेयी ने हमको अपमानित किया है । इस दुर्वल से व्यक्ति से मैं इसे छीन लूंगा। देखें मेरा कोई क्या कर लेगा?
सभी राजा और राजपुत्र कुपित होकर स्वयंवर मण्डप से चले गये और हरिवाहन के नेतृत्व में युद्ध की तैयारियां करने लगे।
यद्यपि राजा शुभमति दशरथ के पक्ष में था किन्तु सभी राजाओं . की सम्मिलित शक्ति के समक्ष वह भी निरुत्साहित हो रहा था। उसके मुख से निकला
-अब क्या होगा? अकेला मैं कैसे इतने राजाओं पर विजय प्राप्त कर सकूँगा?
दशरथ ने आश्वासन दिया
-नरेश ! आप चिन्ता न करें। यदि मुझे कुशल और साहसी सारथी मिल जाय तो इन सबके लिए मैं अकेला ही . काफी हूँ।
शुभमति ने ऊपर से नीचे तक दशरथ को देखा और बोला
-भद्र ! यह दर्पोक्ति है। इतने राजाओं के समक्ष टिक पाना भी असम्भव है। विजय की बात तो आकाश कुसुम ही समझो।
-राजन् ! हाथ कंगन को आरसी क्या? आप सारथी का ' प्रवन्ध कर दीजिए, बस । और स्वयं महल में बैठे-बैठे तमाशा देखिए।