Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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११६ | जैन कथामाला (राम-कथा)
इसका निर्णय इसके पति पवनकुमार पर छोड़ दिया जाय । पवनकुमार को बुलाकर सच्चाई का पता लगवाइये और तत्र तक पुत्री को घर में आश्रय दे दीजिए | यही इस समय उचित है ।
- नहीं मन्त्री ! मैं इसे आश्रय नहीं दे सकता ।
- पुत्री नहीं, दासी समझकर ही इस पर दया कीजिए । यह अभागिनी इस दशा में कहाँ जायेगी ?
- कहीं भी जाय ? पहाड़ से गिर कर मर जाय । मुझे इसकी सूरत से नफरत है । मन्त्रीजी ! आप चुप हो जाइये | मैं कुछ नहीं सुनना चाहता । - राजा ने अन्तिम निर्णय कर दिया ।
तीव्र पाप का उदय था अंजना का । जिन हाथों ने उसे फूल की तरह प्यार-दुलार में पाल-पोसकर बड़ा किया था, आज उन्हीं हाथों ने उसे धक्के मार कर निकाल दिया ।
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पति और पितृगृह से तिरस्कृत अंजना निराश वहाँ से चल दी । नव माता-पिता ने ही उसे दुत्कारा तो प्रजा ही क्यों पीछे रहती ? जहाँ भी वे दोनों सखियाँ गई अपमानित ही हुई । नगर से ग्राम और ग्रामों से वन की ओर बढ़ती गई वे दोनों । अंजना चलती जाती और विलाप करते हुए कहती जाती - 'मुझ अभागिनी को निरपराध ही गुरुजनों ने दण्ड दिया ।'
वसन्ततिलका उसे बार-बार धैर्य बँधाती-सखी ! हमारे पाप का ही उदय है। शोक मत कर, साहस रख। सब ठीक हो जायेगा । इतने बड़े संसार में कहीं तो कोई आसरा मिलेगा। जिसका संसार में कोई सहाई नहीं होता उसका रखवाला धर्म ही होता है ।
- भटकते-भटकते दोनों सखियाँ एक पर्वत गुफा के सामने आईं ।' वसन्ततिलका ने कहा- सखी ! लगातार कई दिनों से हम भटक रही हैं । इस गुफा में कुछ देर विश्राम कर लें तब आगे चलेंगे ।