Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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साले-बहनोई की दीक्षा | १३५ मेरे हृदय में उठती हुई वैराग्य भावना को और भी दृढ़ किया है। तुम तो मेरे उपकारी हो ।
-आप इस तरह मेरी वहन को अनाथ जोड़कर मत जाइयें। -उदयसुन्दर ने उसे रोकने की चेष्टा की।
-कौन अनाथ और कौन सनाथ ? उदयसुन्दर आत्मा स्वयं अपने ही कर्मों का भल भोगता है । तुम भ्रम में हो। अपनी आत्म-शक्ति से सभी सनाथ हैं।
-नहीं ! नहीं !! आपके चले जाने के बाद मेरी बहन का क्या होगा.? अभी तो इसके हाथों से मेंहदी का रंग भी नहीं छूटा । श्वसुर को द्वार भी नहीं देखा कि पति वियोग का महा कष्ट । आप मेरी विनय मानिये । हठ छोड़कर वापिस चलिए। -उदयसुन्दर के स्वर में कातरता आ गई।
वज्रवाहु ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया' -भद्र ! वैराग्य की ओर उठे हुए कदम वापिस संसार की ओर नहीं मुड़ते । मुझे तो आश्चर्य हो रहा है तुम्हारी कातरता पर! क्षत्रिय होकर ऐसे शब्द तुम्हारे मुख से निकल रहे हैं।
-कुमार! मैं क्षत्रिय तो हूँ किन्तु साथ ही एक वहन का भाई भी । एक भाई अपनी बहन के सुख को लुटते हुए देखकर अति दीन हो ही जाता है।
-सुख ! अरे इन सांसारिक भोगों में सुख कहाँ ? सुख तो आत्मा में ही है। उसी आत्मिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही तो मैं प्रयत्नशील हुआ हूँ। तुम अपने वचन का निर्वाह स्वयं भी नहीं कर रहे हो और मेरे मार्ग में भी वाधक बन गये हो। क्षत्रिय-पुत्र हो, अपने वचन का पालन करो। मेरे साथ तुम भी दीक्षा लो।
उदयसुन्दर ने अधिक तर्क करना उचित नहीं समझा। वह