Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सती अंजना | १०६
- तू कुछ भी नहीं जानती ! विद्युत्प्रभं तो अल्प आयु वाला है । - वसन्ततिलका ने स्पष्ट किया ।
- वसन्ततिलका ! तू तो मन्दबुद्धि है । अरे अमृत थोड़ा भी हो तो अच्छा और विष वहुत-सा भी हो तो किस काम का ? - मिश्रका ने वसन्ततिलका की वात काटी ।
: दोनों सखियाँ इस प्रकार वाद-विवाद कर रही थीं और अंजना लज्जावश अपना मुख नीचा किये बैठी रही । उसने न समर्थन किया और न प्रतिवाद |
पवनंजय अपने लिए विष और विद्युत्प्रभ के लिए अमृत की उपमा सुनकर कुपित हो गया । उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ाअंजना विद्युत्प्रभ के प्रति आकर्पित है ।
: प्रहसित ने पूछा- तुमने कैसे जाना ?
- वह प्रतिवाद नहीं कर रही है, यह उसके प्रति अनुरागवती होने का स्पष्ट प्रमाण है |
- तुम भूलते हो मित्र ! लज्जा ने अंजना के मुख पर ताला लगा रखा है । कुलीन कन्याएँ मुँहफट नहीं होतीं ।
मित्र की बात पवनंजय के गले नहीं उतरी। उसे अंजना से घृणा हो गई। दोनों मित्र वहाँ से चुपचाप अदृश्य रूप में ही लौट आये । मानसरोवर पहुँचकर पवनंजय वापिस अपने नगर को जाने लगा तो प्रहसित ने पूछा- यह क्या कर रहे हो, मित्र !
A
-नगर वापिस जा रहा हूँ । जो कन्या किसी दूसरे के प्रति अनुरक्त हो उसके साथ विवाह करने से क्या लाभ ?
-भ्रम हो गया है, तुम्हें ! अंजना विल्कुल निर्दोष है । - मैं नहीं मानता ।