Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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८२ | जैन कथामाला (राम-कथा) लज्जा से पीला ही पड़ गया। वह चुपचाप उठा और राजसभा छोड़कर चल दिया ।
सगर का षड्यन्त्र सफल हुआ । सुलसा उसे प्राप्त हो गई।
मधुपिंग अपमान से दुःखी होकर वाल तप करने लगा और कालधर्म प्राप्त करके साठ हजार असुरों का स्वामी महाकाल नाम का
१ स्वयंवर से निराश लौटकर कुमार मधुपिंगल ने हरिपेण गुरु देव के पास जाकर दीक्षा ली।
-उत्तर पुराण ६७।२३६ __ इसके बाद की एक अन्य छोटी सी घटना का उल्लेख भी आया है
साधुवृत्ति ग्रहण कर लेने के बाद एक बार मधुपिंगल किसी नगर में भोजन के निमित्त गया । उसे देखकर किसी नैमित्तिक (सामुद्रिक विद्या के ज्ञाता) ने दूसरे नैमित्तिक से कहा-'इस युवक साधु के शारीरिक लक्षण तो यह बताते हैं कि इसे पृथ्वी का राज्य भोगना चाहिए, किन्तु यह तो भिक्षा मांग रहा है। अतः सामुद्रिक शास्त्र और उसमें कहे हुए शारीरिक लक्षण विल्कुल मिथ्या हैं, किसी काम के नहीं।'
दूसरे नैमित्तिक ने उत्तर दिया-'पहले यह राज्य लक्ष्मी का ही भोग करता था। किन्तु अयोध्या के राजा सगर और उसके मन्त्री ने झूठा और विपरीत सामुद्रिक शास्त्र रच कर इसे दूषित ठहराया । इस वात से लज्जित होकर इसने साधुवृत्ति स्वीकार कर ली है । इसके चले आने पर सुलसा राजा सगर को प्राप्त हो गई।'
दोनों नैमित्तिकों के वचन सुनकर मधुपिंगल ने निदान किया कि 'इस तपश्चरण के फलस्वरूप में अगले जन्म में सगर का वंश नाश . करूंगा।'
मर कर वह असुरेन्द्र की प्रथम- महिष जाति की सेना के कक्षा भेद में चौंसठ हजार असुरों का नायक महाकाल नाम का देव हुआ ।
- उत्तर पुराण ६७१२४५-२५२