Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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इन्द्र का पराभव
दुर्लध्यपुर से रावण की सेना ने रथनूपुर की ओर प्रयाण किया। उसका लक्ष्य था इन्द्र-विजय ।
गुप्तचरों ने आकर यह वात राज्यसभा में इन्द्र को बताई। किन्तु, उसने विशेष ध्यान नहीं दिया। कर्ण परम्परा से यह समाचार, धर्मपरायण राजा सहस्रार (इन्द्र के पिता जो उसे राज्य देकर धर्मपालन में लग गये थे) को भी ज्ञात हुए। उन्होंने पुत्र को बुलाकर समझाया- ..
......... .. -वत्स ! मैं जानता हूँ कि तुम महापराक्रमी हो। तुमने अपने वंश की कीर्ति को दिदिगन्तव्यापिनी वना दिया है किन्तु अब समय वदल चुका है । रावण उठती हुई शक्ति है। उसकी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। तुम अपनी पुत्री रूपवती का विवाह : उसके साथ कर दो। वह सन्तुष्ट हो जायगा और तुम्हारी विपत्ति भी टल जायगी। ....
-पिताजी ! यह आप क्या कहते हैं ? कहाँ वह छोटी सी नगरी का अधिपति रावण और कहाँ मैं ? उसकी और मेरी समानता
ही क्या है ? च्यूटी की तरह मसल दूंगा उसे । -अभिमानी इन्द्र ने -पिता को प्रत्युत्तर दिया।