Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
१०० | जैन कथामाला (राम-कथा)
पिता सहस्रार समझ गये-विनाश काले, विपरीत बुद्धिः । परन्तु पुत्र-मोह के वशीभूत होकर बोले
-पुत्र ! कभी-कभी च्यूटी भी हाथी जैसे विशालकाय पशु का प्राणान्त कर देती है। जिसका पुण्य-प्रवल होता है उसके समक्ष सभी को झुकना पड़ता है। इस समय रावण का प्रवल पुण्ययोग है। दक्षिण भरतार्द्ध के समस्त राजा उसके वशीभूत हो चुके हैं।
— इन्द्र को पिता के शब्द बहुत बुरे लगे। वह वहाँ से उठकर चला आया । सभा में बैठकर वह रावण का सामना करने का विचार करने लगा। - रावण की सेना ने रथनपुर के चारों ओर घेरा डाल दिया। चारों ओर जहाँ तक दृष्टि जाता, राक्षस कटक ही दिखाई पड़ता। इन्द्र रावण से युद्ध करने की योजना बना ही रहा था कि दूत ने . आकर कहा-. . . . . " -राजा इन्द्र ! मैं महाबली रावण का दूत हूँ। मेरे स्वामी की आज्ञा है कि यदि आप कुशलता चाहते हैं तो उनके प्रति भक्ति प्रदर्शित कीजिए अन्यथा शक्ति । अव आपकी इच्छा है जो चाहे सो करें। आपके सम्मुख दो ही मार्ग हैं-भक्ति का प्रदर्शन अथवा. शक्ति का! । गर्वयुक्त स्वर में इन्द्र ने उत्तर दिया--- : -दूत ! उस राक्षस से जाकर स्पष्ट कह दो हमें उसकी चुनौती स्वीकार है । वह अपनी शक्ति का प्रदर्शन करे और हमारी शक्ति देखे। ' स्पष्ट निर्णयात्मक उत्तर सुनकर दूत चला गया। : दूसरे दिन के बालरवि ने दोनों ओर की सेनाओं को युद्ध के लिए सन्नद्ध देखा। सूर्योदयं ही मानो युद्ध का संकेत था। रवि की