Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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___६८ | जैन कथामाला (राम-कथा)
हम तीनों गुरुजी के आदेश से कुछ चकित हुए। फिर चुपचाप मुर्गे लेकर अलग-अलग चल दिये । पर्वत मुर्गे को मारकर पहले लौटा और वाद में वसु । मुझे कोई ऐसा स्थान ही नहीं मिला जहाँ मैं उसे मार सकता। क्योंकि और कोई नहीं तो मैं तो मुर्गे को देख ही रहा था और मुर्गा मुझे ! गुरु का आदेश था 'जहाँ कोई न देखता हो, ऐसे स्थान पर ले जाकर मारना।' मैं मन में सोचने लगा- 'गुरुजी ने ऐसा विपरीत आदेश क्यों दिया ? मुर्गा तो देखने वाला सदा ही होगा । अवश्य ही उनका कोई गूढ़ अभिप्राय है । सम्भवतः वे हम लोगों की परीक्षा लेना चाहते हैं। आज तक तो गुरुजी ने अहिंसा
इनमें एक मयूर है और सातों मयूरिणी । पर्वत को यह बात सहन नहीं हुई । उसने स्वयं जाकर देखा किन्तु नारद की वात सत्य निकली।
कुछ समय के लिए वे दोनों एक स्थान पर विश्राम करने लगे। नारद अचानक ही बोल उठा-इस मार्ग से एक कानी हथिनी गई है और उस पर एक गर्भिणी स्त्री सफेद साड़ी पहने हुए बैठी थी। वह स्त्री आज ही प्रसव करेगी।
पर्वत को यह बात भी बुरी लगी। उसने पर्वत का विश्वास नहीं किया किन्तु इस बात की सत्यता परखने का कोई साधन नहीं था । अतः घर आकर पर्वत ने अपनी माता से शिकायत की कि 'पिताजी ! मुझे उतनी अच्छी तरह नहीं पढ़ाते जैसे नारद को ।' माता ने पिता से शिकायत की तो उपाध्याय क्षीरकदव ने नारद से पूछा-'तुमने वन में पर्वत के साथ क्या उपद्रव किया ?' विनीत स्वर में नारद ने सम्पूर्ण घटना सुना कर अपने हेतु वताए–'गुरुजी ! उन आठ मयूरों में से एक मयूर अपनी पूछ के पानी में भीगकर भारी हो जाने के डर से उलटा लौट रहा था । इसलिए मैंने जाना कि वह मयूर (नर) है और शेष मयूर सीधे लौट रहे थे, इन्हें पूछ भीगने का कोई भय ही नहीं था क्योंकि उनकी पूछ छोटी थी इसलिए मैंने समझ लिया कि ये मयूरिणी (मादाएँ) हैं ।