Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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सहस्रांशु की दीक्षा | ५६ -मित्र ! आज से तुम मेरे भाई हो, क्योंकि साधर्मी भाई ही होता है । अव तक हम तीन भाई थे और अब तुम्हारे मिलने से चार हो गये। तुम निर्विघ्न राज्य करो। .
सहस्रांशु चित्त में बहुत दु:खी था। उससे अर्हन्तभक्त की अशातना हो गई थी-चाहे अनजाने में ही सही, बोला
-भाई ! अव मेरा हृदय तो संसार से ऊब गया है। मुझे न राज्य चाहिए और न सुख ! मैं तो पिताश्री के चरणों में दीक्षित होता हूँ। ___ और सहस्रांसु तत्काल दीक्षित हो गया।
दशमुख ने दोनों मुनियों की वन्दना की और सहस्रांशु के पुत्र को माहिष्मती का भार सौंपकर आगे चल दिया।
माहिष्मती नरेश सहस्रांशु की प्रव्रज्या का समाचार अयोध्यापति राजा अनरण्य' को मिला। दोनों ही मित्र थे और उनकी प्रतिना थी कि दोनों साथ ही प्रवजित होंगे। उन्होंने भी अपने अल्पवयस्क पुत्र दशरथ को अयोध्या का राज्यभार दिया और स्वयं प्रवजित हो गये।
-त्रिषष्टि शलाका ७२
हैहयराज ने भी ऋपि पुलस्त्य के प्रति आदर भाव प्रदर्शित करते हुए रावण को स्वतन्त्र कर दिया। इस प्रकार हैहयराज अर्जुन के द्वारा रावण का पराभव हुआ था।
[उत्तरकाण्ड वा० रा०] १ रावण अपनी दिग्विजय करता हुआ अयोध्या पहुंचा। उस समय
अयोध्या पर राजा अनरण्य राज्य कर रहे थे । उन्होंने युद्ध करना चाहा तो दशग्रीव ने उनके माथे पर एक तमाचा मारा । राजा के प्राण-पखेरू उड़ गये और युद्ध-भूमि में मरने के कारण वे स्वर्गलोक पहुंचे।
[उत्तरकाण्ड : वा०रा०]