Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रावण का पराक्रम | ४३
का परिचायक ! दशानन कुछ समय तक ठगा-सा रह गया । तभी प्रहस्त नाम के अनुचर ने आकर कहा
-देव ! जिस हाथी की गर्जना सुनकर आप विस्मित हो रहे हैं वह अति विशालकाय और दुर्धर्ष है । सात हाथ ऊँचा और नौ हाथ लम्बा यह गज नहीं गजराज ऐरावण के समान दिखाई पड़ता है।. अति स्वच्छन्द होकर वन में विचरता और मनमानी क्रीड़ाएँ करता र है । आज तक कोई इसे वश में नहीं कर सका है।
दशमुख के भुजदण्ड फड़कने लगे। वह वहाँ से चला और वन गजेन्द्र को लीलामात्र में वशीभूत करके उस पर सवार हो गया। विशालकाय गजराज पर बैठा हुआ दशानन इन्द्र के समान सुशोभित होने लगा।
सम्मेत शिखर से लंका तक का मार्ग उसने गजराज पर सवार होकर तय किया और प्यार से उसका नाम भुवनालंकार रख दिया ।
प्रातःकाल रावण राजसभा में बैठा था। उसी समय द्वारपाल से आज्ञा लेकर विद्याधर पवनवेग ने सभा में प्रवेश किया और रावण को प्रणाम करके कहने लगा
---लंकेश ! किष्किधिराजा के पुत्र-आदित्यराजा और ऋक्षराजा पाताल लंका से निकलकर किष्किधा नगरी गये थे । वहाँ उनका युद्ध यम के समान कराल यमराजा से हुआ। यमराजा ने उन्हें परास्त करके बन्दी बना लिया और उन्हें भाँति-भाँति के नरकतुल्य कष्ट दे रहा है। उनको छुड़ाइए । वे आपके मित्र हैं अतः उनका पराभव आपका भी पराभव समझना चाहिए।
रावण ने विद्याधर को आश्वस्त करते हुए उत्तर दिया--