Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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५० / जैन कथामाला (राम-कथा) को दास बनाने के उपक्रम में असंख्य जीवों की हिंसा कर दी और इस प्रकार लज्जित हुए । मैं चाहूँ तो तुम्हें च्यूटी की भाँति मसल सकता हूँ किन्तु तुम और तुम्हारे पूर्वजों के उपकारों को स्मरण करके मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ।
रावण लज्जावश मुख नीचा किये खड़ा था। उसके मुख से एक शब्द भी नहीं निकला । वाली ने ही पुनः कहा___ दशानन ! विजय कौन नहीं चाहता । तुम भी विजयाभिलाषी हो और मैं भी, किन्तु मुझमें और तुममें अन्तर है। तुम इस जड़भूमि को जीतना चाहते हो और मैं कर्मों को। मैं दीक्षा ले रहा हूँ और तुम यह राज्य संभालो । मेरा अनुज सुग्रीव तुम्हारी आज्ञा का पालन करता हुआ यहाँ का शासन संचालन करता रहेगा।
यह कहकर वालो ने तुरन्त गगनचन्द्र मुनिराज के चरणों में जाकर सयम ग्रहण कर लिया ।
सुग्रीव ने रावण को अपनी बहिन श्रीप्रभा देकर सन्तुष्ट किया और वाली के पराक्रमा पुत्र चन्द्ररश्मि को किष्किधा का युवराज बना लिया।
१ बाली द्वारा रावण के पराभव के सम्बन्ध में यह घटना प्रसिद्ध है
एक वार मदोन्मत्त हुआ रावण वाली को जीतने की इच्छा से किष्किधा नगरी जा पहुंचा। वहाँ उसे सुग्रीव आदि से ज्ञात हुआ कि वाली दक्षिण समुद्र पर सन्ध्योपासना में व्यस्त है। रावणं वहीं पहुंचा और देव-मन्त्रों का पाठ करते हुए वाली को बाँधने का प्रयास करने लगा । वाली ने उसे काँख में दवा लिया और उसे दवाये हुए उत्तर, पूर्व, पश्चिम समुद्र तटों पर सन्ध्योपासन किया । अन्त में किष्किधा के बाहर लाकर छोड़ दिया । वाली के वल को देखकर रावण ने उससे मित्रता कर
[वा० रा० उत्तरकाण्ड]
ली।