Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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महाबली बाली | ५१ . रावण सन्तुष्ट होकर लंका वापिस चला आया।
x एक दिन रावण नित्यालोक नगर के राजा नित्यालोक की कन्या रत्नावली के साथ परिणय करने के लिए परिवार सहित विमान में बैठकर चला । मार्ग में अष्टापद पर्वत के ऊपर आते ही विमान रुक गया। कुपित रावण के मुख से निकला-'मेरे विमान को रोककर कौन काल का ग्रास वनना चाहता है ?' नीचे देखा तो वाली मुनि कायोत्सर्ग में ध्यानलीन खड़े थे। __ मुनि वाली को कठोर तप के फलस्वरूप अनेक लब्धियाँ तथा अवधिज्ञान प्राप्त हो चुका था। दुरभिमानी रावण अपने अहंकार में भूल गया था कि लब्धिधारी वीतराग श्रमणों का उल्लंघन करके इन्द्र का विमान भी नहीं जा सकता है तो साधारण विद्या निर्मित विमान की हस्ती ही क्या ? ___ रावण ने विमान को आगे बढ़ाने के लिए बहुत जोर लगाया। सभी विद्याओं, मन्त्रों आदि का आह्वान कर लिया, परन्तु परिणाम निकला शून्य-विमान टस से मस न हुआ। क्रोधाभिभूत रावण के हृदय में विचार आया-यह वाली मेरा शत्रु है। किष्किंधा में तो इसने मेरा सार्वजनिक अपमान किया ही और अब मुनि होकर भी पीछा नहीं छोड़ा। आज इसे लवण समुद्र में ले जाकर डुबो ही दूंगा-न रहेगा वाँस न बजेगी वाँसुरी। - ___यह सोचकर दशानन विमान से उतरा और अपनी समस्त विद्याओं को एक साथ स्मरण करके अष्टापद पर्वत को उखाड़ने हेतु प्रयत्नशोल हुआ। सभी के समवेत बल प्रयोग से कठोर कड़कड़ाहट शब्द के साथ पर्वत उखड़ गया। सुख से विचरते वन्य पशु-पक्षी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे । व्यन्तर आदि देव थर-थर काँपने लगे। प्रथम चक्रवर्ती भरतेश द्वारा निर्मित महानिषद्या चैत्य हिलने