Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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विद्या - सिद्धि | ३५
दशमुख के समक्ष इन्द्र, वैश्रवण और विद्याधर क्या हैं ? तिनके हैं, तिनके ! फूँक मारते ही उड़ जायेंगे; और मातेश्वरी ! दशमुख की बात ही क्या यदि बड़े भाई कुम्भकर्ण ही कुपित होकर पृथ्वी पर पदाघात कर दें तो समस्त राजा और विद्याधर सिंहासनों से लुढ़क - कर भूमि पर लौटने लगेंगे। जननी ! मैं तो सबसे छोटा हूँ । मुझे ही आज्ञा दे तो यह विभीषण ऐसा भीषण तूफान वन जायेगा कि इन सभी के मस्तक तेरे चरणों में पके आमों की भाँति आ गिरेंगे ।
कोपावेश में हाथ मलता हुआ कुम्भकर्ण बोला-
- एक वार आजा तो दे दो 'मातेश्वरी ! सभी शत्रुओं को निःशेष करके तुम्हारे हृदय की शल्य को सदा-सदा के लिए निकाल दूंगा ।
होठ चवाते हुए रावण ने गर्जना की
माँ ! तुम वज्र समान कठोर शल्य से अपने हृदय को बींधती रहीं और हमसे कहा तक नहीं । इन इन्द्रादिक विद्याधरों को तो मैं भुजाओं से ही निष्प्राण कर दूंगा । अस्त्रों की आवश्यकता ही क्या है ? तुम मुझे आशीर्वाद दे दो, बस !
तीनों पुत्रों को शान्त करते हुए केकसी ने कहा
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पुत्रो ! मैं जानती हूँ कि तुम तीनों असाधारण वली हो किन्तु क्रोधावेश में विवेक को भूल रहे हो । जैसा शत्रु हो, उसके मारने का उपाय भी वैसा ही होना चाहिए । इन्द्र आदि सभी अनेक विद्याओं के स्वामी हैं । उन्हें विद्यावल से ही परास्त किया जा सकता है । तुम भी अपनी कुल परम्परा से प्राप्त विद्याओं को सिद्ध करो । तभी
शत्रुओं से उलझना । सफलता के लिए विद्यावल अनिवार्य है ।
आज्ञाकारी पुत्रों ने माता की इच्छा शिरोधार्य की और विद्यासिद्धि के लिए भीम नामक भयंकर वन में पहुँचे ।