Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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रावण का जन्म | २६
गर्भकाल व्यतीत होने पर शत्रुओं के आसन कम्पायमान करता हुआ, चौदह हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र केकसी की उदरगुहा से बाहर आया । अति पराक्रमी शिशु शैया पर पड़ते ही हाथ-पैरों को वेग से चलाने लगा । अचानक ही उछलकर वह खड़ा हो गया तथा चारों ओर दृष्टि दौड़ाकर देखने लगा - मानो वह कुछ खोज रहा हो ।
शिशु की इन विचित्र और अद्भुत क्रियाओं को माता केकसी तथा अन्य उपस्थित दासियाँ विस्मित होकर देख रही थीं । उनके नेत्र खुले के खुले रह गये और दृष्टि शिशु पर जम गई ।
शिशु इन सबसे निर्लिप्त सचमुच ही कुछ खोज रहा था । एकाएक उसकी आँखों में चमक आ गई । वह उछला और सिरहाने गवाक्ष में रखा भीमेन्द्र द्वारा प्रदत्त नवमणि हार उठाकर अपने गले में डाल लिया ।
केकसी ने अति विस्मित होकर पति रत्नश्रवा को बुलाकर कहा- नाथ ! देखिए अपने पुत्र की अद्भुत क्रीड़ायें । प्रसुति शय्या पर ही उठकर खड़ा हो गया और कुल परम्परा से आया हुआ नवमणि हार भी सहज ही कण्ठ में धारण कर लिया ।
रत्नश्रवा भी पुत्र को विस्मित होकर देखने लगा । शिशु के मुख
१ भीमेन्द्र राक्षसद्वीप के अति प्राचीन अधिपति थे । इन्होंने ही राक्षस वंश के प्रवर्तक मेघवाहन को भगवान, अजितनाथ की धर्मसभा में लंका और पाताल लंका का राज्य तथा राक्षसी विद्या दी थी, जिसके कारण ही मेघवाहन का वंश राक्षसवंश कहलाया । उसी समय उन्होंने यह नवमणि हार भी दिया था। इस हार की विशेषता यह थी कि एक हजार नागकुमार देव इसकी रक्षा करते थे और रावण से पहले कोई भी राक्षसवंशी इसे धारण नहीं कर सका था । (देखिए इसी पुस्तक में 'राक्षसवंश की उत्पत्ति' और त्रिषष्टि शलाका पर्व २. सर्ग ५)