Book Title: Jain Kathamala
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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१६ | जैन कथामाला (राम-कथा)
दूती की दृढ़ता से राजा पुष्पोत्तर आश्वस्त हो गया। पुत्री की इच्छा जानकर उसने युद्ध का निर्णय त्याग दिया और धूमधाम से विवाहोत्सव मनाया। समझदार माता-पिता विवाह सम्बन्ध में पुत्रपुत्री की इच्छा को ही प्राथमिकता देते हैं।
विवाहोत्सव मनाकर पुष्पोत्तर तो वापस रत्नपुर लौट गया, किन्तु जव श्रीकण्ठ अपनी नव-विवाहिता रानी पद्मा को लेकर चलने को तत्पर हुआ तो राजा कीर्तिधवल ने उसे रोककर समझायामित्र ! तुम यहीं रहो !
-क्यों ? -श्रीकण्ठ ने पूछा। -वैतादयगिरि पर तुम्हारे बहुत से शत्रु हैं । कुमार श्रीकण्ठ विचार-मग्न हो गया। बात यथार्थ थी। कुछ देर वाद वोला-किन्तु मैं यहाँ भी नहीं रह सकता। वहन के घर भाई का सदैव के लिए रहना उचित नहीं है । मैं कहीं और चला
जाऊँगा।
-कहीं दूसरे स्थान पर ही जाना चाहते हो तो तुम वानरद्वीप चले जाओ। -कीर्तिधवल ने कहा।
-वानरद्वीप कहाँ है ? राक्षसपति कहने लगा
-वानरद्वीप इस नगरी की वायव्य दिशा में अवस्थित है। इसके अतिरिक्त वर्वर कुल और सिंहल आदि मेरे द्वीप हैं। इनमें से किसी एक में राजधानी बनाकर तुम सुखपूर्वक निवास करो।
कीर्तिधवल के स्नेहसिक्त वचनों से प्रभावित होकर श्रीकण्ठ ने वानरद्वीप में निवास करना स्वीकार कर लिया। राक्षसपति ने उसे वानरद्वीप की किष्किवा नगरी के सिंहासन पर लाकर विठा दिया और स्वयं वापिस लंका चला गया।